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२७२
प्रज्ञापना सूत्र
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इस महादण्डक द्वार में सब जीवों की अल्प बहुत की प्ररूपणा की गयी है। मनुष्य हो, देव हो या तिर्यच हो सभी में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या अधिक बतलाई गयी है। अधोलोक में पहली नरक से सातवीं नरक तक क्रमशः जीवों की संख्या घटती जाती हैं। इसी प्रकार अर्ध्वलोक में भी पहले सुधर्म देवलोक से लेकर सर्वार्थ सिद्ध विमान तक देवों की संख्या घटती जाती है। मनुष्य लोक के नीचे भवनपति देव हैं उनकी संख्या सौधर्म देवलोक के देवों से अधिक है। उनसे ऊँचे होते हुए भी वाणव्य॑न्तर और ज्योतिषी देवों की संख्या उत्तरोसर अधिक है। सब से कम संख्या मनुष्यों की है। इसी कारण से ज्ञानियों ने मनुष्य भवे की दुर्लभता बतलाई है। जैसे जैसे इन्द्रियों कम होती गयी है वैसे-वैसे जीवों की संख्या अधिक होती गयी है। जैसे कि - नरक, देव, मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय इन सभी पंचेन्द्रिय जीवों से चउरिन्द्रिय जीवों की संख्या अधिक है। चउरेन्द्रिय की अपेक्षा तेन्द्रिय की, तेइन्द्रिय की अपेक्षा बेन्द्रिय की और बेइन्द्रिय की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवों की संख्या क्रमशः अधिक होती गयी है। यहाँ तक कि सिद्धों की अपेक्षा एकेन्द्रिय की संख्या अधिक है।
दूसरे स्थान पर्दे की व्याख्या करने के बाद सूत्रकार तीसरे अल्पबहुत्व पद की व्याख्या करते हैं। . प्रथम पद में पृथ्वीकायिक आदि जीवों का स्वरूप बतलाया गया है तो दूसरे पद में उन जीवों के स्वस्थान आदि का निरूपण किया गया है। इस तीसरे पद में दिशाओं के भेद से उन जीवों के अल्पबहुत्व का वर्णन किया जाता है। जो इस प्रकार है
दिसि-गई-इंदिय-काए जीए बेए कसाय-लेसा य। सम्मत्त-णाण-दसण-सैजेय-उबओग-आहारे॥ १॥ भासग-परित्त-पजत्त-सुहुम-सण्णी भवअथिए चरिमे। जीवे य खित्तबंधे पुग्गल महदंडए चेव॥ २॥
भावार्थ - १. दिशा २. गति ३. इन्द्रिय ४. काय ५. योग ६. वेद ७. कषाय ८. लेश्या ९. सम्यक्त्व १०. ज्ञान ११. दर्शन १२. संयत १३. उपयोग १४. आहार १५. भाषक १६. परित्त १७. पर्याप्त १८. सूक्ष्म १९. संज्ञी २०. भव-भवसिद्धिक २१. अस्तिकाय २२. चरम २३. जीव २४. क्षेत्र २५. बन्ध २६. पुद्गल और २७. महादंडक। इस प्रकार तीसरे पद में ये २७ द्वार हैं।
विवेचन - दोनों संग्रहणी गाथाओं में दिशा से लगा कर महादंडक पर्यन्त २७ द्वार कहे गये हैं जिनके माध्यम से पृथ्वीकाय आदि जीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की जायगी। सोलहवें परित्त द्वार में प्रत्येक शरीरी और शुक्लपाक्षिक कहे गये हैं क्योंकि परित्त के दो भेद हैं - १. काय परित्त और २. भव परित्त। काय परित्त यानी प्रत्येक शरीर वाला और भव परित्त अर्थात् शुक्ल पाक्षिक।
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