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________________ १२८ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************************************************ जो व्यक्ति अन्य किसी छद्मस्थ या वीतराग भगवन्तों द्वारा उपदिष्ट जीवांदि पदार्थों पर श्रद्धा करता है उसे उपदेश रुचि कहते हैं ॥४॥ जो हेउमयाणंतो आणाए रोयए पवयणं तु। एमेव णण्णहत्ति य एसो आणारुई णाम॥५॥ जो हेतु को नहीं जानता हुआ केवल जिनाज्ञा से ही प्रवचन पर रुचि-श्रद्धा रखता है और समझता है कि जिनेश्वर भगवान् द्वारा उपदिष्ट तत्त्व ऐसे ही है अन्यथा नहीं वह आज्ञा रुचि है॥५॥ (रागो दोसो मोहो, अण्णाणं जस्स अवगयं होइ। आणाए रोयंतो, सो खलु आणारुई णामं॥) (जिस व्यक्ति में राग, द्वेष और मोह नहीं है ऐसे वीतराग के वचन सत्य होते हैं। अन्यथा नहीं होते ऐसा जान कर, जो वीतराग के वचनों पर श्रद्धा करता है, वह आज्ञा रुचि कहलाता है ॥५॥) जो सुत्तमहिजंतो सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं। अंगेण बाहिरेण व सो सुत्तरुइ त्ति णायव्वो॥६॥ जो सूत्र का अध्ययन करता हुआ अंग प्रविष्ट या अंग बाह्य श्रुत से सम्यक्त्व प्राप्त करता है वह सूत्र रुचि वाला कहलाता है॥६॥ एगपएअणेगाइं पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं। उदए व्व तेल्लबिंदू सो बीयरुइ त्ति णायव्वो॥७॥ जैसे जल में पड़ी हुई तेल की बिन्दु फैल जाती है उसी प्रकार जिसके लिये सूत्र का एक पद अनेक पदों के रूप में फैल जाता है उसे बीज रुचि समकित कहते हैं ॥७॥ सो होइ अभिगमरुई सुयणाणं जस्स अथओ दिटुं। इक्कारस अंगाई पइण्णगा दिट्ठिवाओ य॥८॥. जिसने ग्यारह अंगों को और प्रकीर्णकों को तथा बारहवें अंग दृष्टिवाद तक का श्रुतज्ञान अर्थ रूप में जान लिया है वह अभिगम रुचि वाला कहलाता है॥८॥ दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्धा। सव्वाहिं णयविहीहिं वित्थाररुइ त्ति णायव्वो॥९॥ जिसने द्रव्यों के सभी भावों को समस्त प्रमाणों से एवं समस्त नय विधियों से जान लिया, उसे विस्तार रुचि वाला कहते हैं ॥९॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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