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प्रज्ञापना सूत्र
विहरंति। णवरं अग्गमहिसीओ णत्थि । सणकुमारे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ । अरयंबर वत्थधरे, सेसं जहा सक्कस्स । से णं तत्थ बारसण्हं विमाणावास सयसहस्साणं, बावत्तरीए सामाणिय साहस्सीणं, सेसं जहा सक्कस्स अग्गमहिसीवज्जं । णवरं चउण्हं बावत्तरीणं आयरक्खदेव साहस्सीणं जाव विहरइ ॥ १२४ ॥
कठिन शब्दार्थ - सपक्खिं सपक्ष-चारों दिशाओं में समान, सपडिदिसिं सप्रतिदिक्- चारों विदिशाओं में समान ।
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भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सनत्कुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! सनत्कुमार देव कहाँ निवास करते हैं ?
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उत्तर - हे गौतम! सौधर्म देवलोक के ऊपर सपक्ष चारों दिशाओं में और सप्रतिदिक्- चारों विदिशाओं में बहुत योजन, अनेक सौ योजन अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटि योजन ऊपर जाने पर सनत्कुमार नामक कल्प कहा गया है, जो पूर्व पश्चिम लम्बा और उत्तर दक्षिण में चौड़ा है इत्यादि सारा वर्णन सौधर्म कल्प के समान यावत् प्रतिरूप है तक कह देना चाहिए ।
वहाँ सनत्कुमार देवों के बारह लाख विमान हैं ऐसा कहा गया है। वे विमान सर्व रत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं। उन विमानों के ठीक मध्यभाग में पांच अवतंसक विमान हैं। वे इस प्रकार हैं - १. अशोकावतंसक २. सप्तपर्णावतंसक ३. चंपकावतंसक ४. चूतावतंसक और इन सब के मध्य में ५ सनत्कुमारावतंसक हैं। वे अवतंसक विमान सर्व रत्नमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक सनत्कुमार देवों के स्थान कहे गये हैं । उपपात, समुद्घात और स्व स्थान इन तीनों अपेक्षाओं से वे लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वहाँ बहुत से सनत्कुमार देव रहते हैं। वे महा ऋद्धि वाले यावत् दशों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए विचरण करते हैं तक पूर्ववत् समझना चाहिये किन्तु विशेषता यह है कि यहाँ अग्रमहिषियाँ नहीं हैं । यहाँ देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार निवास करता है जो रज रहित स्वच्छ वस्त्रों को धारण करता है शेष सारा वर्णन शक्रेन्द्र के अनुसार जानना चाहिये। वह बारह लाख विमानों का, बहत्तर हजार सामानिक देवों का इत्यादि सारा वर्णन शक्रेन्द्र के अनुसार अग्रमहिषियों को छोड़ कर कहना चाहिये । विशेषता यह है कि चार गुणा बहत्तर हजार अर्थात् दो लाख अठासी हजार आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है।
विवेचन - भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी विमानों में देवियाँ उत्पन्न होती हैं। इसी तरह पहले सौधर्म देवलोक में और दूसरे ईशान देवलोक में देवियाँ उत्पन्न होती हैं। दूसरे देवलोक से आगे देवियों की उत्पत्ति नहीं होती हैं।
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