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________________ दूसरा स्थान पद - वैमानिक देवों के स्थान २३९ कहि णं भंते! माहिंदाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! माहिंदग देवा परिवसंति? गोयमा! ईसाणस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खिं सपडिदिसिं बहूई जोयणाइं जाव बहुयाओ जोयणकोडाकोडीओ उड्डे दूरं उप्पइत्ता एत्थं णं माहिंदे णामं कप्पे पण्णत्ते पाईण पडीणायए जाव एवं जहेव सणंकुमारे। णवरं अट्ठ विमाणावाससयसहस्सा। वडिंसया जहा ईसाणे। णवरं मझे इत्थ माहिंद वडिंसए, एवं जहा सणंकुमाराणं देवाणं जाव विहरंति। माहिदे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, अरयंबर वत्थधरे, एवं जहा सणंकुमारे जाव विहरइ। णवरं अट्ठण्हं विमाणा-वाससयसहस्साणं, सत्तरीए सामाणिय साहस्सीणं, चउण्हं सत्तरीणं आयरक्खदेव साहस्सीणं जाव विहरइ॥१२५॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक माहेन्द्र देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! माहेन्द्र देव कहाँ निवास करते हैं? उत्तर - हे गौतम ! ईशान देवलोक के ऊपर समान दिशाओं में और समान विदिशाओं में बहुत योजन यावत् बहत कोटाकोटि योजन ऊपर जाने पर माहेन्द्र नामक कल्प कहा गया है, वह पूर्व पश्चिम में लम्बा इत्यादि सारा वर्णन सनत्कुमार की तरह जानना चाहिये परन्तु इसमें आठ लाख विमान हैं। ईशान के समान अवतंसक जानने चाहिये किन्तु विशेषता यह है कि इनके मध्य में माहेन्द्र अवतंसक है। इस प्रकार शेष सारा वर्णन सनत्कुमार देवों के समान यावत् विचरण करते हैं तक कह देना चाहिये। यहाँ देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र निवास करता है जो रज रहित स्वच्छ वस्त्रों को धारण करता है। इस प्रकार सारा वर्णन सनत्कुमारेन्द्र की तरह यावत् विचरण करता है तक समझना चाहिये। विशेषता यह है कि माहेन्द्र आठ लाख विमानों का, सत्तर हजार सामानिक देवों का, चार गुणा सत्तर हजार अर्थात् दो लाख अस्सी हजार आत्म रक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ, अग्रेसरत्व करता हुआ यावत् विचरण करता है तक कह देना चाहिये। विवेचन - ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा चार के अन्दर इस प्रकार का पाठ है - हेट्ठिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणसंठिया पण्णत्ता तं जहा - सोहम्मे, ईसाणे, सणंकुमारे, माहिंदे मग्झिल्ला चत्तारि कप्पा पडिपुण्णचंद संठाणसंठिया पण्णत्ता तं जहा - बंभलोगे, लंतए, महासुक्के, सहस्सारे उवरिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंद संठाणसंठिया पण्णत्ता तं जहा - आणए, पाणए, आरणे, अच्चुए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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