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________________ २४० प्रज्ञापना सूत्र * * * -*-*-*-*-*-*- -* -* * * * * * * * * * * * * अर्थ - यहाँ बारह देवलोकों का संस्थान बतलाया गया है। पहले के चार देवलोकों का संस्थान अर्धचन्द्राकार हैं। पहला और दूसरा देवलोक बराबरी में आमने सामने आये हुए हैं। दोनों मिलकर पूर्ण चन्द्राकार बनते हैं। इसी तरह पहले देवलोक के ऊपर तीसरा देवलोक और दूसरे देवलोक के ऊपर चौथा देवलोक आया हुआ है। ये दोनों भी बराबरी में आमने सामने आये हुए हैं और इन दोनों का संस्थान भी अर्धचन्द्राकार है। दोनों मिलकर पूर्ण चन्द्राकार बनते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. सौधर्म २. ईशान ३. सनत्कुमार ४. माहिन्द्र। तीसरे, चौथे के ऊपर पांचवाँ, पांचवें के ऊपर छट्ठा, छठे के ऊपर सातवाँ और सातवें के ऊपर आठवाँ देवलोक आये हुए हैं। जैसे पणिहारी पानी लाते समय एक घड़े के ऊपर दूसरा घड़ा रखती है इसी प्रकार ये चारों देवलोक एक घड़े के ऊपर दूसरे घड़े की तरह ऊपरा ऊपरी आये हुए हैं। इनका संस्थान पूर्ण चन्द्र के आकार का है। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. ब्रह्मलोक २. लान्तक ३. महाशुक्र ४. सहस्रार। __आठवें देवलोक के ऊपर नववाँ और दसवाँ देवलोक आये हुए हैं ये दोनों देवलोक भी पहले दूसरे देवलोक की तरह आमने सामने बराबरी में आये हुए हैं। इनका संस्थान भी अर्ध चन्द्राकार है। दोनों का मिलकर पूर्ण चन्द्राकार बनता है। इन दोनों के ऊपर ग्यारहवाँ और बारहवाँ देवलोक आये हुए हैं। ये दोनों भी तीसरे और चौथे देवलोक की तरह आमने सामने बराबरी में आये हुए हैं। इन दोनों के संस्थान अर्ध चन्द्राकार है। दोनों के मिलकर पूर्ण चन्द्राकार बनता है। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. आणत २. प्राणत ३. आरण ४. अच्युत। कहि भंते! बंभलोग देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! बंभलोग देवा परिवसंति? ____ गोयमा! सणंकुमार माहिंदाणं कप्पाणं उप्पिं सपक्खिं सपडिदिसिं बहूई जोयणाई जाव उप्पइत्ता एत्थ णं बंभलोए णामं कप्पे पण्णत्ते, पाईण पडीणायए, उदीणदाहिण वित्थिपणे, पडिपुण्ण चंदसंठाणसंठिए, अच्चिमालीभासरासिप्पभे, अवसेसं जहा सणंकुमाराणं।णवरं चत्तारि विमाणावास सयसहस्सा, वडिंसया जहा सोहम्मवडिंसया, णवरं मझे इत्थ बंभलोयवडिंसए। एत्थ णं बंभलोग देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता सेसं तहेव जाव विहरंति। बंभे इत्थ देविंदे देवराया परिवसइ, अरयंबर वत्थधरे, एवं जहा सणंकुमारे जाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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