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________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - चतुरिन्द्रिय जीव प्रज्ञापना ९१ * * * * * * * * * ******************************************************************** और हस्तिशोंड। इसी प्रकार के जितने भी अन्य जीव हों उन्हें तेइन्द्रिय समझना चाहिये। ये सब सम्मूछिम और नपुंसक हैं। ये संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। इन पर्याप्त और अपर्याप्त तेइन्द्रिय जीवों के सात लाख जाति कुल कोटि-योनि प्रमुख (योनिद्वार) होते हैं। ऐसा तीर्थङ्करों ने कहा है। यह तेइन्द्रिय संसार समापन्न जीवों की प्रज्ञापना हुई। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में तेइन्द्रिय-तीन इन्द्रिय (स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय) वाले जीवों का निरूपण किया गया है। इनमें कितनेक नाम प्रसिद्ध हैं और कितने ही नाम अप्रसिद्ध हैं। चतुरिन्द्रिय जीव प्रज्ञापना से किं तं चउरिदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा? चउरिदिय संसारसमावण्ण जीव पण्णवणा अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा - अंधिय णेत्तिय ( पत्तिय) मच्छिय मसगा कीडे तहा पयंगे य। ढंकुण कुक्कुड (कुक्कड) कुक्कुह णंदावत्ते य सिंगिरिडे॥ किण्हपत्ता णीलपत्ता लोहियपत्ता हालिद्दपत्ता सुक्किल्लपत्ता, चित्तपक्खा, विचित्तपक्खा ओहंजलिया, जलचारिया, गंभीरा, णीणिया, तंतवा अच्छिरोडा अच्छिवेहा सारंगा णेउरा दोला भमरा भरिली जरुला तोट्टा विच्छुया, पत्तविच्छुया छाणविच्छुया, जलविच्छुया, पियंगाला, कणगा गोमयकीडा, जेयावण्णे तहप्पगारा। सव्वे ते सम्मुच्छिमा णपुंसगा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-पजत्तगा य अपज्जत्तगा य। एएसि णं एवमाइयाणं चउरिंदियाणं पज्जत्तापजत्ताणं णव जाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्साइं भवंतीति मक्खायं। से तं चउरिदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा॥४६॥ भावार्थ - प्रश्न - चतुरिन्द्रिय संसार समापन जीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही गयी है ? उत्तर - चतुरिन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना अनेक प्रकार की कही गयी हैं। वह इस प्रकार है-अंधिक, नेत्रिक (पत्रिक), मक्खी, मच्छर, कीट, पतंग, ढंकुण, कुर्कुट, कुक्कुह, नंदावर्त, सिंगिरिड। कृष्णपत्र, नीलपत्र, लोहितपत्र, हारिद्रपत्र, शुक्लपत्र, चित्रपक्ष, विचित्रपक्ष, ओहांजलिक, जल चारिक, गंभीर, नीनिक, तंतव, अक्षिरोट, अक्षिवेध, सारंग, नेवल, दोला, भ्रमर भरिली, जरुला, तोह, बिच्छू. (वृश्चिक), पत्र वृश्चिक, छाणवृश्चिक (गोबर का बिच्छू) जल वृश्चिक, प्रियंगाल, कनक और गोबर का कीडा (गोमयकीट)। इसी प्रकार के जितने भी अन्य प्राणी हैं उन्हें चतुरिन्द्रिय समझना चाहिये। ये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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