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________________ ९० प्रज्ञापना सूत्र ******************************************************************************** ** एक भी गुण को ग्रहण नहीं करता है किन्तु वह तो दोष को देखकर उस दोष (अवगुण) को बड़े उमङ्ग और उत्साह पूर्वक ग्रहण कर लेता है। उसका स्वभाव जलोक (जोक) सरीखा होता है। किसी गाय, भैंस आदि दूधारु (दूध देने वाली) जानवर के पयोधर (स्तन) के पास फोड़ा फुन्सी का खून इकट्ठा हो गया हो उस पर उस जलोक जानवर को लगाया जाय तो स्तन में दूध भी है और खराब खून भी है। परन्तु वह तो दूध (पय) को नहीं पीता बल्कि उस खराब खून को ही चूसता है। इसलिए दुष्ट प्रकृति वाले पुरुष को जलोक की उपमा दी जाती है। तेइन्द्रिय जीव प्रज्ञापना से किं तं तेइंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा? तेइंदिय-संसार-समावण्ण जीव पण्णवणा अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा-ओवइया, रोहिणिया, कुंथू, पिपीलिया, उइंसगा, उद्देहिया, उक्कलिया, उप्पाया, उप्पाडा, तणहारा, कट्ठहारा, मालुया, पत्ताहारा, तणवेंटिया, पत्तवेंटिया, पुप्फवेंटिया, फलबेटिया, बीयवेंटिया, तेबुरणमिंजिया( तेदुरणमिंजिया'), तउसमिंजिया (तओसिमिंजिया) कप्पासथिमिंजिया, हिल्लिया, झिल्लिया, झिंगिरा, किंगिरिडा, बाहुया (पाहुया.), लहुया, सुभगा, सोवत्थिया, सुयवेंटा, इंदकाइया, इंदगोवया, तुरुतुंबगा, कुच्छलवाहगा, जूया, हालाहला, पिसुया, सयवाइया, गोम्ही, हत्थिसोंडा, जेयावण्णे तहप्पगारा। सव्वे ते संमुच्छिमा णपुंसगा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-पजत्तगा य अपजत्तगा य। एएसि णं एवमाइयाणं तेइंदियाणं पज्जत्ता अपज्जत्ताणं अट्ठ जाईकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा भवंतीति मक्खायं। से तं तेइंदिय संसार समावण्ण जीव पण्णवणा॥४५॥ भावार्थ - प्रश्न - तेइन्द्रिय संसार समापन्न जीव प्रज्ञापना कितने प्रकार की कही गयी है ? उत्तर - तेइन्द्रिय संसार समापन जीव प्रज्ञापना अनेक प्रकार की कही गयी है। वह इस प्रकार हैऔपयिक, रोहिणीक, कुंथु, पिपीलिका (चींटी), उद्देशक (डांस), उद्देलिका (उदई-दीमक) उत्कलिक उत्पाद, उत्कट, उत्पट, तृणहार, काष्ठहार, मालुक, पत्रहार, तृणवृन्तिक, पत्रवृन्तिक, पुष्पवृन्तिक, फलवृन्तिक, बीजवृन्तिक, तेबुरणमिंजिक, त्रपुषमिंजिक, कार्पासास्थिमिंजिक, हिल्लिक, झिल्लिक, झिंगिरा, किंगिरिट, बाहुक, लघुक, सुभग, सौवस्तिक, शुक्रवृन्त, इन्द्रकायिक, इन्द्रगोप (बीरबहूटी), तुरुतुंबक, कुस्थलवाहक, यूका (जू), हालाहल, पिशुक (खटमल), शतपादिका, गोम्ही (कानखजूरा) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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