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________________ २२० ********** प्रज्ञापना सूत्र पिशाच देवों के स्थान हैं। वे उपपात, समुद्घात और स्व स्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत से दक्षिण दिशा के पिशाच देव रहते हैं । वे महाऋद्धि वाले इत्यादि औधिक - सामान्य वर्णन यावत् विचरण करते हैं वहाँ तक जानना चाहिए । यहाँ काल नामक पिशाच देवों का इन्द्र और पिशाच देवों का राजा रहता है वह महा ऋद्धि वाला यावत् दशों दिशाओं को प्रकाशित करता है। वहाँ तिरछे असंख्यात लाख भौमेय ( भूमि संबंधी) नगरों का, चार हजार सामानिक देवों का, परिवार सहित चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात प्रकार की सेना का, सात सेनाधिपतियों का, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से वाणव्यंतर देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। 1 केके के केके के के **** उत्तरदिशा के पिशाच देवों संबंधी प्रश्न ? हे गौतम! जिस प्रकार दक्षिण दिशा के पिशाच देवों संबंधी वक्तव्यता कही है उसी प्रकार उत्तर दिशा के पिशाच देवों का वर्णन समझना चाहिये। विशेषता यह है कि इनके नगरावास मेरु पर्वत के उत्तर में हैं । यहाँ महाकाल नामक पिशाच देवों का इन्द्र, पिशाच देवों का राजा रहता है यावत् विचरण करता है। इस प्रकार जैसे दक्षिण दिशा और उत्तर दिशा के पिशाच देवों और उनके इन्द्रों के स्थानों का वर्णन किया गया है। उसी तरह भूत देवों का यावत् गंधर्व देवों तक का वर्णन समझना चाहिए। परन्तु इन्द्रों संबंधी विशेषता इस प्रकार कहनी चाहिए-भूतों के सुरूप और प्रतिरूप दो इन्द्र हैं। यक्षों के पूर्णभद्र और माणिभद्र, राक्षसों के भीम और महाभीम, किन्नरों के किन्नर और किम्पुरुष, किंपुरुषों के सत्पुरुष और महापुरुष, महोरगों के अतिकाय और महाकाय तथा गंधर्वों के गीत रति और गीतयश इन्द्र यावत् विचरण करता है तक जानना चाहिए । नीचे दी हुई दो गाथाओं में भी वाणव्यन्तर देवों के इन्द्रों के नाम हैं । उन गाथाओं का अर्थ इस प्रकार है। आठ प्रकार के वाणव्यंतर देवों के दो दो इन्द्र क्रमश: इस प्रकार हैं - १. काल और महाकाल २. सुरूप और प्रतिरूप ३. पूर्णभद्र और माणिभद्र ४. भीम तथा महाभीम ५. किनर और किम्पुरुष ६. सत्पुरुष और महापुरुष ७. अतिकाय और महाकाय ८. गीत रति और गीतयश । कहि णं भंते! अणवण्णियाणं देवाणं ठाणा पज्जत्ता पज्जत्तगाणं पण्णत्ता ? कहि णं भंते! अणवणिया देवा परिवसंति ? Jain Education International गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उवरि हेट्ठा य एगं जोयणसयं वज्जित्ता मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु । एत्थ णं अणवणियाणं देवाणं तिरियमसंखिज्जा णयरा वास सयसहस्सा भवतीति मक्खायं । ते णं जाव पडिरूवा । एत्थ णं अणवण्णियाणं देवाणं ठाणा पण्णत्ता । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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