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________________ ५४ प्रज्ञापना सूत्र ************************** ******** ************************************** **** भावार्थ - प्रश्न - सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. पर्याप्त और २. अपर्याप्त। यह सूक्ष्म तेजस्कायिक का वर्णन हुआ। से किं तं बायर तेउक्काइया ? बायर तेउक्काइया अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहाइंगाले, जाला, मुम्मुरे, अच्ची, अलाए, सुद्धागणी, उक्का, विजू, असणी, णिग्याए संघरिस समुट्ठिए सूरकंत मणि णिस्सिए, जे यावण्णे तहप्पगारा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा-पजत्तगा य अपज्जत्तगा या तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं असंपत्ता। तत्थ णं जे ते पजत्तगा एएसि णं वण्णादेसेणं, गंधादेसेणं, रसादेसेणं, फासादेसेणं, सहस्सग्गसो विहाणाइं, संखिजाई जोणिप्यमुह सयसहस्साई। पजत्तगणिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखिज्जा। से तं बायर तेउक्काइया। से तं तेउक्काइया॥२३॥ ___ कठिन शब्दार्थ - इंगाले - अंगार-कोयलों की अग्नि, धूम रहित अग्नि।, जाला - ज्वालासंबद्ध अग्नि, अग्नि से जुड़ी हुई दीप शिखा, मुम्मुरे - मुर्मुर (राख से मिले अग्नि कण या भोभर) अच्ची - अर्चि (अग्नि से पृथक् हुई ज्वाला या लपट) अलाए - अलात-जलती हुई मशाल या जलती हुई लकड़ी, सुद्धागणी - शुद्ध अग्नि (लोहे के गोले की अग्नि), उक्का - उल्का - रेखा सहित विद्युत, विजू - विद्युत - कृत्रिम बिजली, असणी - अशनि - विद्युत रहित अग्नि, णिग्याए - निर्घात - कड़क युक्त विद्युत, संघरिस समुट्ठिए - संघर्ष समुत्थित (रगड-घर्षण से उत्पन्न होने वाली अग्नि) सूरकंत मणि णिस्सिए - सूर्यकांत मणि निःसृत-सूर्यकांत मणि से उत्पन्न होने वाली अग्नि। भावार्थ - प्रश्न - बादर तेजस्कायिक कितने प्रकार के कहे गये हैं? उत्तर - बादर तेजस्कायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - अंगार, ज्वाला, मुर्मुर, अर्चि, अलात, शुद्ध अग्नि, उल्का, विद्युत, अशनि, निर्घात, संघर्ष समुत्थित-संघर्ष से उत्पन्न हुई और सूर्यकांत मणिनिःसृत और इसके अलावा अन्य इसी प्रकार की जो भी अग्नियाँ हैं उन्हें बादर तेजस्कायिक समझना चाहिए। वे संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। उनमें से जो अपर्याप्त हैं वे असम्प्राप्त हैं। उनमें से जो पर्याप्त हैं उनके वर्णादेश, गंधादेश, रसादेश और स्पर्शादेश से हजारों भेद होते हैं। उनके संख्यात लाख योनि प्रमुख-योनिद्वार हैं। पर्याप्त की निश्राय से अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्त है वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार बादर तेजस्कायिक जीव कहे गये हैं। इस प्रकार तेजस्कायिक जीवों की प्ररूपणा पूर्ण हुई। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बादर तेजस्कायिक जीवों के भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की गयी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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