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दूसरा स्थान पद - ज्योतिषी देवों के स्थान
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द्वीप है, पुष्करवर द्वीप। उसमें चन्द्रों की संख्या निकालने के लिए - बयालीस को तीन से गुणा करना और पिछली संख्या (४२४३-१२६+१२+४+२=१४४) को जोड़ देने से एक सौ चवालीस की संख्या आती है। इस प्रकार आगे के द्वीप और समुद्रों में चन्द्र और सूर्य की संख्या निकालने का यही तरीका है। यथा १४४४३=४३२+४२+१२+४+२=४९२। सूर्यों की संख्या निकालने का तरीका भी यही है। जितने चन्द्र हैं उतने ही सूर्य हैं।
नोट - जो लोग यह कहते हैं कि - वैज्ञानिक लोग चन्द्रमण्डल पर पहुँच गये हैं। किन्तु तारामण्डल तो अभी बहुत दूर है। यह उनका कथन इस आगम पाठ से मेल नहीं खाता है। क्योंकि यहाँ से ऊपर जाने वाले मनुष्यों को सबसे पहले तारा मण्डल आयेगा। इसके बाद सूर्य मण्डल आयेगा। उससे ८० योजन ऊँचा जाने पर चन्द्रमण्डल आयेगा। जो तारामण्डल एवं सूर्य मण्डल तक नहीं पहुँचा वह व्यक्ति एकदम सीधा चन्द्र मण्डल पर कैसे पहुंच सकता है ? ज्योतिषियों के सब विमान रत्नों के बने हुए हैं। इसलिये वहाँ से मिट्टी लाने की बात भी उचित नहीं लगती है। अनुमान ऐसा लगता है कि ये तथाकथित वैज्ञानिक किसी चमकीली पहाड़ी पर पहुँचे होंगे और वहाँ से मिट्टी भी लाई जा सकती है। दूसरी बात यह है कि - आगम की बात तो त्रिकाल नित्य, ध्रुव और सत्य है। वैज्ञानिकों की मान्यता तो उनकी खोज के अनुसार बदलती रहती है तथा सब वैज्ञानिकों का मत भी एक नहीं है। आगमों का सिद्धान्त तो सदा सर्वदा एक ही है। सर्वज्ञों द्वारा कथित होने से सर्वथा सत्य है।
ज्योतिषियों के स्थान - कइयों का कहना है कि ज्योतिषी की उपपात शय्या राजधानी में बताई हुई होने से जम्बूद्वीप, लवण समुद्र आदि में अलग-अलग रूप से ज्योतिषी के दस भेद नहीं मानना चाहिए किन्तु यहाँ पर मूलपाठ में तो ज्योतिषी विमानों में पांचों भेदों के पर्याप्त और अपर्याप्त के स्थान बताये हैं अतः जीव धड़ा आदि थोकड़ों में भी जम्बूद्वीप आदि में दस चर ज्योतिषियों के भेद बताये गये हैं। चन्द्र एवं सूर्य इन्द्र तो राजधानियों में उत्पन्न होते हैं किन्तु इनके प्रजा स्थानीय देव विमानों में भी उत्पन्न होते हैं उनकी अपेक्षा जम्बूद्वीप आदि में इनके भेद गिने जा सकते हैं।
यद्यपि सभी ज्योतिषी विमान अर्द्ध कबीठ के आकार के ही हैं तथापि मूल पाठ में जो 'णाणासंठाण संठिया' कहा है उसका आशय यह हो सकता है कि ताराओं की गति आदि से इनका परस्पर कुछ आकार बनता होगा। अनेक ताराओं से बने नक्षत्र आदि के भी जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में भिन्न-भिन्न आकार बताये ही है। क्योंकि इनकी गति करने की व्यवस्था से यां अपनी-अपनी प्रभा के कारण भी भिन्न-भिन्न आकार बन सकते हैं जैसे एक तारे वाले नक्षत्रों के भी भिन्न-भिन्न संस्थान बताये हैं। अलग-अलग फलादेश के कारण भी भिन्न-भिन्न संस्थान बनते हैं। आगमकारों की दृष्टि में और भी अनेक कारण होने से नाना संस्थान वाले बता दिया जाना संभव है।
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