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________________ ३४८ ****************************************************************** ***************** प्रज्ञापना सूत्र अधर्मास्तिकाय की अल्पबहुत्व समझना चाहिए । आकाशास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा सबसे अल्प है क्योंकि वह एक है और प्रदेश की अपेक्षा अनंत गुणा हैं, क्योंकि वह अपरिमित है । जीवास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा सबसे अल्प है और प्रदेश की अपेक्षा असंख्यात गुणा क्योंकि प्रत्येक जीव के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर है। पुद्गलास्तिकाय द्रव्य रूप से सबसे अल्प हे क्योंकि प्रदेशों से द्रव्य थोड़े ही होते हैं प्रदेशों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय असंख्यात गुणा हैं। शंका - लोक में अनन्त प्रदेशी पुद्गल स्कंध बहुत हैं अतः पुद्गलास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा प्रदेशों से अनन्त गुणा होना चाहिए ? समाधान - अनन्त प्रदेशी स्कंध थोड़े हैं और परमाणु आदि अत्यधिक है। कहा भी है " सव्वत्थोवा अणतपएसिया खंधा दव्वट्टयाए, परमाणुपोग्गला दव्वट्टयाए अनंत गुणा संखिज्जपएसिया खंधा दव्वट्टयाए संखिज्जगुणा, असंखिज्जपएसिया खंधा दव्वट्टयाए असंखिज्ज गुणा" द्रव्य की अपेक्षा अनंत प्रदेशी स्कंध सबसे थोड़े हैं, उनसे परमाणु पुद्गल द्रव्य रूप से, अनंत गुणा है उनसे संख्यात प्रदेशी स्कन्ध द्रव्य रूप से संख्यात गुणा है उनसे असंख्यात प्रदेशी स्कंध द्रव्य की अपेक्षा असंख्यात गुणा है। अतः जब समस्त पुद्गलास्तिकाय का प्रदेश की अपेक्षा से विचार किया जाता है तब अनंत प्रदेशी स्कंध अत्यंत कम और परमाणु अत्यधिक तथा पृथक् पृथक् द्रव्य होने से असंख्य प्रदेशी स्कंध परमाणुओं की अपेक्षा असंख्यात गुणा है अतः प्रदेशों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय असंख्यात गुणा ही हो सकता है, अनन्त गुणा नहीं । अद्धा समय (काल) के विषय में द्रव्यार्थ और प्रदेशार्थ रूप से प्रश्न नहीं किया क्योंकि काल के प्रदेश नहीं होते। इसका कारण यह है कि अद्धा समय परस्पर निरपेक्ष है, स्कंध के समान परस्पर सापेक्ष द्रव्य नहीं है। क्योंकि जब वर्तमान समय होता है तब अतीत और अनागत समय नहीं होता । अतएव उसमें स्कन्ध रूप परिणाम का अभाव है। स्कंध के अभाव के कारण अद्धा समय में प्रदेश नहीं होते हैं। एएसि णं भंते! धम्मत्थिकाय-अधम्मत्थिकाय - आगासत्थिकाय - जीवत्थिकायपोग्गलत्थिकाय-अद्धासमयाणं दव्वट्टपएसट्टयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए एए तिण्णि वि तुल्ला दव्वट्ठयाए सव्वत्थोवा, धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए य एएसि णं दोण्णि वितुल्ला पसट्टयाए असंखिज्ज गुणा, जीवत्थिकाए दव्वट्टयाए अनंत गुणे, से चेव पएसट्टयाए असंखिज्ज गुणे, पोग्गलत्थिकाए दव्वट्टयाए अनंत गुणे, से चेव परसट्टयाए असंखिज्ज - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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