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________________ २५८ प्रज्ञापना सूत्र * ** * * * ********************************************* अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया। इहं बोंदि चइत्ता णं, तत्थ गंतूण सिन्झइ॥३॥ भावार्थ - सिद्ध अलोक से रुकते हैं। लोकाग्र पर स्थित होते हैं और मनुष्य लोक में देह को छोड़ कर वहाँ-लोकान पर जा कर, सिद्ध अर्थात् कृतकृत्य होते हैं। विवेचन - प्रतिहत अर्थात् आनन्तर्यवृत्ति मात्र का स्खलन। सिद्धों की अलोक में गति बन्द हो जाने के कारण-१ गतिसहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय का अभाव २. शरीर-त्याग के प्रयोग से इतनी ही गति होना, ३. सिद्ध जीवों का लौकिक द्रव्य होना-आदि। तिरछे या नीचे गति नहीं करने का कारणजीवद्रव्य का मुक्तता के कारण ऊर्ध्वगमन स्वभाव। देहादि से मुक्ति तो मनुष्य लोक में ही हो जाती है। पूर्णतः मुक्ति और सिद्ध में एक समय का भी अन्तर नहीं होता है। किन्तु निश्चयदृष्टि से लोकाग्र पर प्रतिष्ठित हो जाने के बाद ही उन्हें सिद्ध माना जाता है। दीहं वा हस्सं वा, जं चरिमभवे हविज संठाणं। तत्तो तिभाग हीणा, सिद्धाणोगाहणा भणिया॥४॥ भावार्थ - छोटा या बड़ा, जैसा भी अन्तिमभव में आकार होता है, उससे तीसरे भाग जितने कम स्थान में सिद्धों की व्याप्ति-जिनेश्वर देव के द्वारा कही गई है। विवेचन - प्रश्न - सिद्ध अवस्था में आत्म प्रदेशों की अवगाहना कितनी होती है ? और इसका क्या नियम है ? उत्तर - उपरोक्त प्रश्न का उत्तर इस गाथा में दिया गया है। वह यह है कि-सिद्ध होने वाले जीव के शरीर की अवगाहना इस चरम भव में जितनी होती है, उसका एक तिहाई भाग कम होकर दो तिहाई भाग प्रदेशों की सिद्ध अवस्था में अवगाहना होती है। जैसे कि यहाँ से तीन हाथ के शरीर की अवगाहना वाला जीव सिद्ध होता है, तो सिद्ध अवस्था में उसके आत्म प्रदेशों की अवगाहना दो हाथ की रहती है। इसी प्रकार छह हाथ वाले की चार हाथ और नौ हाथ वाले की छह हाथ की अवगाहना रहती है। इसी प्रकार सात हाथ वाले की चार हाथ सोलह अंगुल (२४ अंगुल का एक हाथ होता है) की अवगाहना सिद्ध अवस्था में रहती है। जं संठाणं तु इहं, भवे चयंतस्स चरिमसमयंमि। आसा तसठाणताह.तस्स।।५॥ ताहातस्सा 5भावार्थ - मनुष्यलोक के शव के देह में जो प्रदेशघन आकार अन्तिम समय में बना था, वही आकार उनका वहा पर होता है। A r fai IS FIRE IT .., Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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