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________________ दूसरा स्थान पद - सिद्धों के स्थान २५९ ********************************* ************************************** तिणि सया तेत्तीसा, धणुत्तिभागो य होइ बोधव्वा। एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया॥६॥ भावार्थ - तीन सौ तैंतीस धनुष और धनुष का तीसरा भाग अर्थात् ३२ अंगुल, यह सर्वज्ञ कथित सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना जानना चाहिए। चत्तारि य रयणीओ, रयणित्तिभागणिया य बोधव्वा। एसा खलु सिद्धाणं, मझिम ओगाहणा भणिया॥७॥ भावार्थ - चार हाथ और तीसरा भाग कम एक हाथ अर्थात् सोलह अंगुल यह सिद्धों की मध्यम अवगाहना जानना चाहिए। एगा य होइ रयणी, अद्वेव य अंगुलाई साहीया। एसा खलु सिद्धाणं, जहण्ण ओगाहणा भणिया॥८॥ भावार्थ - एक हाथ और आठ अंगुल अधिक-यह सर्वज्ञकथित सिद्धों की जघन्य अवगाहना है। विवेचन - प्रश्न - अधिक से अधिक कितनी ऊँचाई वाले सिद्ध हो सकते हैं ? उत्तर - छठी गाथा के अनुसार उत्कृष्ट ५०० धनुष की अवगाहना वाले सिद्ध हो सकते हैं। प्रश्न - टीकाकार ने मरुदेवी माता की ५२५ धनुष की अवगाहना बताई हैं, यह कैसे ? उत्तर - मरुदेवी माता की अवगाहना ५०० सौ धनुष की ही थी इससे अधिक नहीं इसलिए टीकाकार का ५२५ धनुष लिखना यह आगम सम्मत नहीं है तथा वृद्ध अवस्था के कारण उनका शरीर सिकुड गया था अथवा वे बैठी हुई सिद्ध हुई थी इसलिए अवगाहना कम हो गई थी टीकाकार का यह लिखना भी आगमानुकूल नहीं है, क्योंकि सिद्ध होने वाला जीव चाहे बैठा हुआ हो, सोया हुआ हो या आडा टेडा हो अथवा देव द्वारा संहरण करके समुद्र या कुएं तालाब आदि पानी में ऊपर से ऊँधा डाला जाता हुआ हो अर्थात् सिद्ध होने वाले जीव किसी भी अवस्था में हो किन्तु सिद्ध गति में जाते समय आत्मा के प्रदेश मनुष्य के शरीर के आकार में खड़े हो जाते हैं। सब सिद्धों के आत्म-प्रदेश खड़े मनुष्य के शरीर के आकार के होते हैं। प्रश्न - सिद्ध भगवन्तों की मध्यम अवगाहना चार हाथ सोलह अंगुल कैसे समझना चाहिए ? उत्तर - गाथा नंबर ७ में सिद्ध भगवन्तों की जो यह मध्यम अवगाहना बताई है वह वास्तव में मध्यम अवगाहना नहीं है किन्तु तीर्थंकर भगवन्तों की अपेक्षा यह जघन्य अवगाहना है यह ऊपर के गद्य पाठ से स्पष्ट हो जाता है क्योंकि वहाँ सिद्ध होने वाले जीव की जघन्य अवगाहना सात हाथ की बतलाई है। इसकी टीका में स्पष्ट कर दिया है कि यह जघन्य अवगाहना तीर्थंकर भगवन्तों की अपेक्षा समझनी चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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