________________
दूसरा स्थान पद - वाणव्यंतर देवों के स्थान
मनुष्यान् अपि चक्रवर्ती वासुदेव प्रभृतीन भृत्यवत् उपचरन्ति केचित् व्यन्तरा इति मनुष्येभ्यः विगतान्तराः, यदि वा विविधमन्तरं शैलान्तर कन्दरान्तरं वनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां वे व्यन्तराः, प्राकृतत्वाच्च सूत्रे वाणमन्तरा इति पाठः । यदि वानमन्तरा इति पदसंस्कारः, तत्रेयं व्युत्पत्तिःवनानामन्तराणि वनान्तराणि तेषु भवा वानमन्तराः ।
अर्थ - मनुष्य तिर्च्छा लोक में रहते हैं और व्यन्तर देव भी तिच्र्च्छा लोक में ही रहते हैं । इसलिये इनका और मनुष्यों का परस्पर अन्तर नहीं है तथा सोलह हजार व्यन्तर देव चक्रवर्ती की सेवा में और आठ हजार व्यन्तर देव वासुदेव की सेवा में रहते हैं और एक नौकर की तरह इन पुरुषोत्तमों की सेवा करते हैं । इस तरह से मनुष्य और इन देवों में परस्पर कोई अन्तर नहीं रहता इसलिए इनको व्यन्तर कहते हैं। वाणमन्तर (वाणव्यन्तर) भी इनको कहते हैं इसका कारण यह है कि ये देव वनों (जङ्गलों) पहाड़ तथा गुफाओं के अन्तराल में भी रहते हैं । इसलिये इनको वाणव्यन्तर देव कहते हैं । प्राकृत का पाठ होने से बीच में मकार का आगम हो जाता है। इसलिए इनको वाणमन्तर देव भी कहते हैं ।
२१७
वाणव्यन्तर देवों के नगर द्वीपों के नीचे ही समझना चाहिये। समुद्रों के नीचे नहीं । क्योंकि समुद्र तो स्वयं एक हजार योजन के गहरे (ऊण्डे) होते हैं । अतः समुद्रों के नीचे वाणव्यन्तर देवों के नगर संभव नहीं है। क्योंकि यहाँ पर दूसरे पद में व्यन्तर देवों के स्थान ८०० योजन में तिर्यग्लोक में ही बताये हैं। जिस प्रकार असुरकुमार आदि भवनवासी एक - एक अन्तर में रहने वाले होते हुए भी उन्हें एक लाख ७८ हजार योजन के क्षेत्र में होना बताया गया है। उसी प्रकार वाणव्यन्तर की १६ जातियाँ भी आठ सौ योजन के क्षेत्र में बताई गई हैं। वहाँ पर भी उन्हें ऊपर नीचे समझना उचित ध्यान में आता है अतः व्यंतर नगरों के ऊपर ८०० योजन का खुला आकाश होने की संभावना कम है क्योंकि व्यंतर देव की अपेक्षा ज्योतिषी संख्यात गुणा ही अधिक होते हुए भी ११० योजन की मोटाई (ऊंचाई) में वह लगभग एक रज्जु की तिरछाई तक ऊपर नीचे सर्वत्र है। जबकि वाणव्यंतरों के नगर तो द्वीपों के नीचे ही है। समुद्रों के नीचे नहीं है। समुद्रों का भाग ही अधिक होता है अतः उन्हें आठ ऊपर नीचे मानने पर ही उनका समावेश हो सकता है।
दस योजन में
1
Jain Education International
*******
यद्यपि भवनपति के भवन व वैमानिक के विमान नगरवत् होते हैं तथापि आगमकारों ने वाणव्यंतरों के लिए ही नगरावास शब्द प्रयुक्त किया है । भवनपति के भवनों एवं वैमानिक के विमानों के लिए नहीं । जैसे आज भी बिल्डिंग, बंगला, हवेली आदि में अंतर होता है वैसे ही इनके आकार प्रकार में कुछ भिन्नता होगी, अतः भिन्न-भिन्न शब्द का प्रयोग किया है।
कहि णं भंते! पिसायाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! पिसाया देवा परिवसंति ?
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org