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________________ २४८ फैट के क ************* प्रज्ञापना सूत्र बहवे मज्झिमगेविज्जगा देवा परिवसंति जाव अहमिंदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो!॥ १३३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक मध्यम ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! मध्यम ग्रैवेयक देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! नीचे ग्रैवेयक देवों के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा से यावत् ऊपर जाने पर मध्यम ग्रैवेयक देवों के तीन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट कहे गये हैं। जो पूर्व पश्चिम में लम्बे हैं इत्यादि वर्णन नीचे के ग्रैवेयक देवों के समान समझना चाहिये । विशेषता यह है कि इनके एक सौ सात (१०७) विमान कहे गये हैं । वे विमान् यावत् प्रतिरूप हैं। I यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक मध्यम ग्रैवेयक देवों के स्थान हैं। ये स्थान तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में है । वहाँ बहुत से मध्यम ग्रैवेयक देव निवास करते हैं यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे देवगण अहमिन्द्र नाम से कहे गये हैं । कहि णं भंते! उवरिम गेविज्जगा णं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! उवरिम गेविज्जगा देवा परिवसंति ? गोयमा ! मज्झिम गेविज्जगाणं उप्पिं जाव उप्पइत्ता एत्थ णं उवरिम- गेविज्जगाणं तओ गेविज्जग विमाण पत्थडा पण्णत्ता । पाईण-पडीणायया, सेसं जहा हेट्टिम - गेविज्जगाणं । णवरं एगे विमाणावास एवं मक्खायं, सेसं तहेव भाणियव्वं जाव अहमिंदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो ! एक्कारसुत्तरं हेट्टिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए । सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥ १३४॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक ऊपर के ( उपरितन ) ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! ऊपर के ग्रैवेयक देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! मध्यम ग्रैवेयकों के ऊपर यावत् ऊर्ध्व जाने पर ऊर्ध्व के ग्रैवेयक देवों के तीन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट कहे गये हैं । जो पूर्व पश्चिम में लम्बे हैं इत्यादि सारा वर्णन नीचे के ग्रैवेयकों के समान जानना चाहिये । विशेषता यह है कि इनके एक सौ (१००) विमान है, ऐसा कहा गया है। शेष वर्णन पूर्वोक्तानुसार है। यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे देवगण अहमिन्द्र नाम से कहे गये हैं । नीचे के ग्रैवेयकों में एक सौ ग्यारह, मध्यम ग्रैवेयकों में एक सौ सात, ऊपर के ग्रैवेयकों में एक सौ और अनुत्तरोपपातिक देवों के पांच विमान हैं। कहि णं भंते! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहिणं भंते! अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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