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________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना ६७ ************************ ************ ******** ****** * ** ** ***** **** भावार्थ - प्रश्न - तृण कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - तृण अनेक प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं - सेटिक, भक्तिक, होत्रिक, दर्भ, कुश और पर्वक, पोटकिला, अर्जुन, आषाढक, रोहितांश, शुक, वेद, क्षीर भुसा, एरण्ड, कुरुविंद, करकर, मुट्ठ विभंगु, मधुरतृण, क्षुरक, शिल्पिक, सुंकली तृण। इसके सिवाय अन्य इसी प्रकार की वनस्पति को तृण समझना चाहिए। इस प्रकार तृण कहे गये हैं। से किं वलया? वलया अणेग विहा पण्णत्ता। तंजहा - ताल-तमाले तक्कलि-तोयली सारे (साली) य सारकल्लाणे। सरले जावति केयइ कदली तह धम्म रुक्खे य॥१॥ . भुय रुक्ख-हिंगु रुक्खे लवंग रुक्खे य होइ बोद्धव्वे। पूयफली खजुरी बोद्धव्वा णालिएरी य॥२॥ जे यावण्णे तहप्पगारा।से तं वलया॥४०॥ भावार्थ - प्रश्न - वलय वनस्पति कितने प्रकार की कही गई हैं ? उत्तर - वलय वनस्पति अनेक प्रकार की कही गयी हैं, वे इस प्रकार हैं - ताल (ताड), तमाल, तक्कलि, तोयली, साली (शाल्मली), सारकल्याण, सरल (चीड), जावती (जावित्री) केतकी (केवडा) कदली (केला), धर्मवृक्ष (चर्मवृक्ष)। भुजवृक्ष, हिंगुवृक्ष, लवंगवृक्ष, पूगफली (सुपारी), खजूर और नालिकेरी (नारियल)। इसके अलावा अन्य इसी प्रकार की वनस्पति को वलय समझना। इस प्रकार वलय वनस्पतियों का वर्णन हुआ। विवेचन - वलय के आकार की गोलगोल छाल वाली वनस्पति वलय कहलाती है। जिसके तने में से छाल निकलते निकलते पीछे कुछ भी नहीं बचे, उसे वलय वनस्पति कहते हैं। कदली (केले) की सचित्तता निम्न आगम प्रमाणों से सिद्ध होती है - १. प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में वनस्पति के भेदों के अन्तर्गत 'वलय' नामक वनस्पति के भेद में कदली का भी वर्णन है। कदली के साथ साथ ताल, तमाल, नालिकेर आदि अनेक प्रकार की वनस्पति भी उसी भेद में बताई गई है, अर्थात् इन सब की समानता होने से इन सबका ग्रहण 'वलय' वनस्पति में हुआ है। ताल, तमाल नालिकेर आदि में प्रत्यक्ष बीज पाये जाते हैं। अतः इस शास्त्रीय प्रमाण से तालादि के समान कदली भी होने से उसमें भी बीज है और वह भी सचित्त है। २. भगवती सूत्र के बावीसवें शतक में ताल वर्ग के भेदों में कदली का नाम भी है और इनके मूल से बीज पर्यन्त दस भेदों के दस उद्देशक बताये गये हैं। इनके मूलादि में जीव कहाँ से आकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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