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________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - दिशा द्वार २८७ ******************************** ** * * * * * * * * * * * * * * * ** * * ** ** ******************* ऐसा दिशाओं के विभाग सम्बन्धी विधि निषेध आगमों में देखने में नहीं आता है क्योंकि दिशानुपात का अल्पबहुत्व तो विमानों के छोटे बड़े होने से तथा उनमें रहने वाले देवों के संकीर्ण विकीर्ण होने पर भी बैठे सकता है। "बृहत् संग्रहणी" नामक ग्रन्थ में पुष्पावकीर्ण विमानों का दिशा सम्बन्धी विधि निषेध देखने में आता है और उससे आगम में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती है। इसीलिए उस ग्रन्थ के अनुसार पुष्पावकीर्ण विमानों का दिशा सम्बन्धी विभाग मानने में कोई बाधा नहीं है। सहस्रार नामक आठवें देवलोक तक सन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं। उसके आगे नववें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें (आणत, प्राणत, आरण, अच्युत) देवलोक तथा नवौवेयक और पांच अनुत्तर विमानों में सिर्फ मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए ये चारों दिशाओं में प्रायः समान हैं। दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा सिद्धा दाहिणउत्तरेणं, पुरच्छिमेणं संखिज्ज गुणा, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया॥ पढमं दारं समत्तं॥१४४॥ भावार्थ - दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े सिद्ध दक्षिण और उत्तर दिशा में हैं। उनसे पूर्व दिशा में संख्यात गुणा हैं और पश्चिम में विशेषाधिक हैं। विवेचन - सिद्ध, दक्षिण दिशा में और उत्तर दिशा में थोड़े हैं क्योंकि मनुष्य ही सिद्ध होते हैं अन्य जीव नहीं। मनुष्य भी सिद्ध होते चरम समय में जिन आकाश प्रदेशों में अवगाह कर रहे होते हैं उन्हीं आकाश प्रदेशों को अवगाह कर सम श्रेणी से उसी सीध में ऊपर जाते हैं और लोकाग्र पर स्थित होते हैं। दक्षिण दिशा में पांच भरत और उत्तर दिशा में पांच ऐरवत क्षेत्रों से अल्प मनुष्य सिद्ध होते हैं क्योंकि क्षेत्र अल्प है और सुषमसुषमादि काल में तो सिद्धि का अभाव है। अतः दक्षिण और उत्तर दिशा में सिद्ध सबसे थोड़े हैं। उनसे पूर्व दिशा में संख्यात गुणा हैं क्योंकि भरत और ऐरवत क्षेत्र की अपेक्षा पूर्व महाविदेह क्षेत्र संख्यात गुणा हैं जिससे उसमें रहे हुए मनुष्य संख्यात गुणा अधिक हैं और वहां से सर्वकाल में सिद्ध होते हैं। उनसे भी पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों में मनुष्यों की संख्या अधिक है और वहाँ से भी सिद्ध होते हैं। क्योंकि वहाँ भी तीर्थङ्करों का जन्म होता है, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चारों तीर्थ होते हैं। तीर्थङ्कर तो उसी भव में मोक्ष जाते हैं। दूसरे जीव भी करणी करके सामान्य केवली के रूप में मोक्ष जाते हैं। सलिलावती विजय और वप्रा विजय ये दोनों एक हजार योजन ऊँडी है और ये दोनों विजय पश्चिम दिशा में आयी हुई है। इसलिए क्षेत्र की अधिकता होने के कारण वहाँ से सिद्ध होने वाले जीव अधिक हैं। इसलिए पश्चिम दिशा में सिद्ध विशेषाधिक कहे गये हैं। || प्रथम दिशा द्वार समाप्त। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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