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________________ २८८ प्रज्ञापना सूत्र ******************************************* Kashikatha - २. द्वितीय गति द्वार एएसि णं भंते! णेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं देवाणं सिद्धाणं च पंचगइ समासेणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? . गोयमा! सव्वत्थोवा मणुस्सा, णेरइया असंखिज गुणा; देवा असंखिज गुणा, सिद्धा अणंत गुणा, तिरिक्खजोणिया अणंत गुणा॥१४५॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों, तिर्यंचों, मनुष्यों, देवों और सिद्धों की पांच गतियों की अपेक्षा से संक्षेप में कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, उनसे नैरयिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे देव असंख्यात गुणा हैं, उनसे सिद्ध अनंत गुणा हैं और उनसे भी तिर्यंच अनंत गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - गति किसे कहते हैं ? उत्तर - गमनं गतिः, अथवा गमनं गतिर्गम्यत इति वा गतिः क्षेत्रविशेषः । अथवा गम्यते वा अनया कर्मपुद्गलसंहत्या इति गति मकर्मोत्तर प्रकृतिरुपा तत्कृता वा जीवावस्थितिः इति। अर्थ - संस्कृत में 'गम' धातु है। जिसका अर्थ है, गति करना। अथवा नाम कर्म की उत्तर प्रकृति रूप 'गति' है। उससे गमन करना गति कहलाता है। जीव अवस्थिति रूप अर्थात् जहाँ जाकर जीव ठहरता है। ऐसी आवागमन रूप चार गतियाँ है। यथा - नरक गति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति। पांचवीं गति सिद्धिगति है। वहाँ जाकर जीव कभी नहीं लौटता है। दिशा द्वार का वर्णन करने के बाद अब सूत्रकार गतिद्वार कहते हैं। गति की अपेक्षा से सबसे थोड़े मनुष्य हैं क्योंकि वे अंगुल मात्र श्रेणी के प्रथम वर्गमूल को तीसरे वर्गमूल से गुणा करने पर जितने प्रदेश आते हैं उनको घनीकृत लोक की एक श्रेणी के प्रदेशों में भाग देने पर जो संख्या आती है उसमें से एक कम जितने होते हैं। यहाँ पर मनुष्य शब्द से गर्भज मनुष्य और सम्मुछिम मनुष्य दोनों का ग्रहण हुआ है। गर्भज मनुष्यों की राशि तो छिन्नु छेदनक दाई राशि से कुछ अधिक ही है। इसके सिवाय शेष असंख्यात गुणी राशि सम्मुर्छिम मनुष्यों की होती है। मनुष्यों से नैरयिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि अंगुल मात्र क्षेत्र में जितने आकाश प्रदेशों की संख्या है उसके प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल से गुणा करने पर जितनी संख्या होती है उतनी घनीकृत लोक की एक प्रदेश की श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने नैरयिक हैं। उनसे देव असंख्यात गुणा हैं क्योंकि व्यन्तर और ज्योतिषी देव प्रत्येक प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई श्रेणियों के आकाश प्रदेशों की राशि प्रमाण है। उनसे सिद्ध अनन्त गुणा हैं क्योंकि वे अभव्यों से अनंत गुणा हैं। उनसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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