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________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - गति द्वार २८९ ***********************************************************-*-*-*-*-*-*-*-***** ********** तिर्यंच अनन्त गुणा हैं क्योंकि सिद्धों से वनस्पतिकायिक अनन्त गुणा हैं। इस प्रकार नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्धों का अल्पबहुत्व कहा गया है। ' एएसि णं भंते! णेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीणं मणुस्साणं मणुस्सीणं देवाणं देवीणं सिद्धाणं च अट्ट गइ समासेणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवाओ मणुस्सीओ, मणुस्सा असंखिज गुणा, णेरड्या असंखिज्ज गुणा, तिरिक्खजोणिणीओ असंखिज गुणाओ, देवा असंखिज गुणा, देवीओ संखिज्ज गुणाओ, सिद्धा अणंत गुणा, तिरिक्खजोणिया अणंत गुणा॥२ दारं॥१४६॥ __ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन नैरयिकों, तिर्यंचयोनिकों, तिर्यंचयोनिक स्त्रियों, मनुष्यों, मनुष्यस्त्रियों, देवों, देवियों और सिद्धों में इन आठ गतियों की अपेक्षा से संक्षेप में कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! सबसे कम मनुष्यस्त्रियाँ हैं, उनसे मनुष्य असंख्यात गुणा हैं, उनसे नैरयिक असंख्यात गुणा हैं, उनसे तिर्यंचयोनिक स्त्रियाँ असंख्यात गुणी है, उनसे देव असंख्यात गुणा हैं, उनसे देवियाँ संख्यात गुणी हैं, उनसे सिद्ध अनंतगुणा हैं और उनसे भी तिर्यंचयोनिक जीव अनंत गुणा हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में नैरयिक, तिर्यंच, तिर्यंच स्त्री, मनुष्य, मनुष्य स्त्री, देव, देवी और सिद्ध इन आठ का अल्पबहुत्व कहा गया है-सबसे थोड़ी मनुष्यस्त्रियाँ हैं क्योंकि वे संख्यात कोटाकोटि प्रमाण हैं उनसे मनुष्य असंख्यात गुणा हैं क्योंकि वेद की विवक्षा नहीं होने से सम्मूर्च्छिम मनुष्यों का भी इनमें समावेश है। १४ सम्मूर्छिम स्थानों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य असंख्यात हैं। उनसे नैरथिक असंख्यात गुणा हैं क्योंकि मनुष्य की उत्कृष्ट संख्या घनीकृत लोक की एक प्रदेश की श्रेणि के असंख्यातवें भाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतनी है और नैरयिक अंगुल प्रमाण क्षेत्र में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उसके प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल से गुणा करने पर जितनी संख्या होती है उतने श्रेणियों के आकाश प्रदेश की राशि प्रमाण है अतः असंख्यात गुणा हैं। उनसे तिर्यंच स्त्रियाँ असंख्यात गुणी हैं क्योंकि प्रतर के असंख्यातवें भाग के असंख्यात जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतनी है। उनसे भी देव असंख्यात गुणा हैं क्योंकि असंख्यात गुणा प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्याती श्रेणियों के आकाशप्रदेश की राशि प्रमाण है। उनसे देवियाँ संख्यात गुणी हैं क्योंकि देव से देवियां बत्तीसगुणी और बत्तीस अधिक हैं, उनसे सिद्ध अनंत गुणा हैं, उनसे भी तिर्यंचयोनिक जीव अनन्त हैं। ।। द्वितीय गतिद्वार समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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