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________________ ३६२ प्रज्ञापना सूत्र *a ****************************************************************** strate** ** ** * * * * * * क्षेत्र की अपेक्षा सबसे थोड़ी वैमानिक देवियाँ ऊर्ध्वलोक तिर्यक्लोक में हैं, उनसे तीन लोक में संख्यात गुणी हैं, उनसे अधोलोक तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं उनसे अधोलोक में संख्यात गुणी हैं उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणी हैं और उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणी हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वैमानिक देव और देवियों का क्षेत्रानुसार अल्पबहुत्व कहा गया हैसबसे थोड़े वैमानिक देव और देवी ऊर्ध्वलोक -तिर्यक्लोक में हैं क्योंकि तिर्यक्लोक के मनुष्य और तिर्यंच मर कर वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हुए ऊर्ध्वलोक और तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। तिर्यक्लोक में गमनागमन करते हुए वैमानिक देव और देवी भी इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। इन दोनों प्रतर में रहे हुए क्रीड़ा स्थान पर गये हुए तथा तिर्यक्लोक में रह कर वैक्रिय तथा मारणान्तिक समुद्घात करते हुए वैमानिक देव और देवी इन दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं इसलिए सबसे थोड़े हैं। उनसे त्रिलोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि मारणान्तिक समुद्घात कर ऊर्ध्वलोक से 'अधोलोक में में उत्पन्न होते हए वैमानिक देव और देवी तीनों लोकका स्पर्श करते हैं अतः त्रिलोक में संख्यात गुणा हैं। उनसे अधोलोक तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों में समवसरणादि निमित्त जाते आते हुए तथा इन दोनों प्रतरों में स्थित समवसरणादि में चिरकाल तक रहते हुए अधोलोक-तिर्यक्लोक के दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं अत: संख्यात गुणा है। उनसे अधोलोक में संख्यात गुणा है क्योंकि बहुत से वैमानिक देव और देवी अधोलौकिक ग्रामों में समवसरणादि में रहते हैं कारणवश भवनपति देवों के भवनों में तथा नरक में जाते हैं इसलिए संख्यात गुणा हैं। उनसे तिर्यक्लोक में संख्यात गुणा हैं क्योंकि तिर्यक्लोक में मनुष्य क्षेत्र में जघन्य २० उत्कृष्ट १७० तीर्थकर भगवान् हैं उनके पंच कल्याणक के अवसर पर तथा दर्शन निमित्त आते हैं, समवसरण में रहते हैं तथा क्रीड़ा के स्थानों में रहते हैं इसलिये संख्यात गुणा हैं। उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यात गुणा हैं क्योंकि ऊर्ध्वलोक वैमानिक देवों का स्वस्थान है वहाँ सदैव अधिकतर वैमानिक देव और देवी रहते हैं अत: असंख्यात गुणा हैं। विशेष ज्ञातव्य - 'ऊर्ध्वलोक तिर्यग् लोक' की अपेक्षा 'अधोलोक तिर्यग् लोक' में वैमानिक देव देवियाँ अधिक बताये हैं क्योंकि बहुत से वैमानिक देव देवियाँ अधोलोक में भवनपति देव देवियों से मिलने आदि के निमित्त से जाते हैं। (भवनपति तो प्रथम आदि देवलोक में अनन्त काल में कोई कोई ही जाते हैं) यद्यपि जाते समय ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक का स्पर्श तो होता है परन्तु अधोलोक में लम्बे काल तक रुकने से एवं वहाँ से बारबार समुद्घात आदि करते हुए अधोलोक तिर्यग् लोक का स्पर्श करते हैं। अतः इन दो प्रतरों पर अधिक देव-देवियाँ बताये हैं। खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा एगिदिया जीवा उड्डलोयतिरियलोए, अहोलोयतिरियलोए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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