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तिरियलोए अगडेसु, तडागेसु, णदीसु, दहेसु, बावीसु, पुक्खरिणीसु, दीहियासु, गुंजालियासु, सरेसु, सरपंतियासु, सरसरपंतियासु, बिलेसु, बिलपंतियासु, उज्झरेसु, णिज्झरे, चिल्ललेसु, पल्ललेसु, वष्पिणेसु, दीवेसु, समुद्देसु, सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु, एत्थ णं बायर वणस्सइ काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइ भागे ॥ ८९ ॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! स्वस्थान की अपेक्षा - सात घनोदधियों में, सात घनोदधिवलयों में, अधोलोक में - पातालों में, भवनों में और भवनों के प्रस्तटों में, ऊर्ध्वलोक में-कल्पों में विमानों में, आवलिकाबद्ध विमानों में और विमानों के प्रस्तटों में, तिर्यग्लोक में कुंओं में, तालाबों में, नदियों में, द्रहों में, वापियों (बावड़ियों) में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सरसरपंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, उर्झरों में, निर्झरों में, तलैयों में, पोखरों में, क्यारियों में, द्वीपों में, समुद्रों में, सभी जलाशयों में तथा जल के स्थानों में इन पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीवों के स्थान कहे गये हैं। ये उपपात की अपेक्षा सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं।
प्रज्ञापना सूत्र
विवेचन उपपात की अपेक्षा पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीव सर्वलोक में है क्योंकि उनके स्वस्थान घनोदधि आदि हैं वहाँ शैवाल आदि बादर निगोद-साधारण वनस्पतिकायिक जीव संभव हैं। सूक्ष्म निगोद की भवस्थिति (आयुष्य) अंतर्मुहूर्त की है अतः वे पर्याप्तक बादर निगोद में उत्पन्न होते हुए पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक के रूप में कहलाते हैं और उपपात की अपेक्षा से वे सर्वदा समस्त लोक को व्याप्त करते हैं ।
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समुग्धाएणं सव्वलोए पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिक जीव समुद्घात से सर्वलोक में होते हैं। क्योंकि जब बादर निगोद, सूक्ष्म निगोद का आयुष्य बांध कर अंत में मृत्यु के समय मारणांतिक समुद्घात करके आत्मप्रदेशों को उत्पत्ति देश तक फैलाते हैं तब पर्याप्तक बादर निगोद का आयुष्य ही वर्तमान है अतः पर्याप्तक बादर निगोद ही समुद्घात अवस्था में समस्त लोक में व्याप्त होते हैं इसलिये समुद्घात से सर्व लोक में व्याप्त होते हैं, ऐसा कहा गया है।
स्वस्थान से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं क्योंकि घनोदधि आदि पूर्वोक्त सभी स्थान मिल कर भी लोक का असंख्यातवां भाग ही होते हैं।
कहि णं भंते! बायर वणस्सइ काइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बायर वणस्सइ काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बायर वणस्स
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