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दूसरा स्थान पद - वनस्पतिकाय स्थान
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कहि णं भंते! अपजत्त बायर वाउकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता! गोयमा! जत्थेव बायर-वाउकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बायर वाउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेजेसु भागेसु॥८७॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्तक बादर वायुकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं?
उत्तर - हे गौतम! जहाँ बादर वायु कायिकों के पर्याप्तकों के स्थान कहे गये हैं वहाँ बादर वायुकायिक जीवों के अपर्याप्तकों के स्थान कहे गये हैं। उपपात की अपेक्षा सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यात भागों में है।
विवेचन - उपपात और समुद्घात की अपेक्षा से अपर्याप्तक बादर वायुकायिक जीव सर्वलोक में व्याप्त है क्योंकि देवों और नारकों को छोड़ शेष सभी स्थानों से आकर जीव बादर अपर्याप्तक वायुकाय में उत्पन्न होते हैं और बादर अपर्याप्तक वायुकाय के जीव अन्तराल (विग्रह) गति में भी होते हैं तथा उनके स्वस्थान बहुत है अत: व्यवहार नय की दृष्टि से उपपात की अपेक्षा उनका सर्वलोक व्यापीपना घटित हो सकता है। अतः कोई दोष नहीं है। समुद्घात की अपेक्षा बादर अपर्याप्तक वायकायिक जीव सर्वलोक व्यापित ही है, यह बात प्रसिद्ध ही है। क्योंकि सभी सक्ष्म जीवों की उत्पत्ति सर्व लोक में संभव है।
कहिणं भंते! सुहम वाउकाइयाणं पजत्तगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सुहम वाउकाइया जे पज्जत्तगा जे य अपजत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोय परियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो!॥८८॥ ___ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सूक्ष्म वायुकायिक जीवों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे गये हैं?
उत्तर - हे गौतम! सूक्ष्म वायुकायिक जीवों के जो पर्याप्तक और अपर्याप्तक हैं वे सभी एक ही प्रकार के हैं अविशेष (विशेषता रहित) और अनानात्व (नानात्व रहित) हैं और हे आयुष्मन श्रमणो! वे सर्वलोक में परिव्याप्त हैं।
वनस्पतिकाय-स्थान कहि णं भंते! बायर वणस्सइ काइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सट्टाणेणं सत्तसु घणोदहीसु, सत्तसु घणोदहिवलएसु, अहोलोए पायालेसु, भवणेसु, भवण-पत्थडेसु, उडलोए कप्पेसु, विमाणेसु, विमाणावलियासु, विमाणपत्थडेसु,
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