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________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - पंचेन्द्रिय जीव प्रज्ञापना पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया चउव्विहा पण्णत्ता तंजहा अही, अयगरा, आसालिया, महोरगा । से किं तं अही ? अही दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - दव्वीकरा य मउलिणो य । से किं तं दव्वीकरा ? दव्वीकरा अणेगविहा पण्णत्ता । तंजहा - आसीविसा, दिट्ठीविसा, उग्गविसा, भोगविसा, तयाविसा, लालाविसा, उस्सासविसा, णीसासविसा, कण्हसप्पा, सेय सप्पा, काओदरा, दज्झपुप्फा, कोलाहा, मेलिमिंदा, सेसिंदा, जे यावण्णे तहष्पगारा। से तं दव्वीकरा । से किं तं मउलिणो ? मउलिणो अणेगविहा पण्णत्ता । तंजहा - दिव्वागा, गोणसा, कसाहीया, वइउला, चित्तलिणो, मंडलिणो, मालिणो, अही, अहिसलागा, वासपडागा, जे यावणे तप्पगारा। से तं मउलिणो । से तं अही । से किं तं अयगरा ? अयगरा एगागारा पण्णत्ता । से तं अयगरा ॥ ५३ ॥ कठिन शब्दार्थ - अहि- अहि (सर्प), अयगरा अजगर, आसालिया दव्वीकरा - दर्वीकर (फन वाले), मउलिणो- मुकुली (बिना फन वाले)। आसालिका, भावार्थ- प्रश्न- उरः परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ? Jain Education International उत्तर - उरः परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक चार प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं - १. अहि २. अजगर ३. आसालिका और ४. महोरग । प्रश्न अहि कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर - अहि दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं- दर्वीकर और मुकुली । प्रश्न- दर्वीकर कितने प्रकार के कहे गये हैं ? " उत्तर - दर्वीकर अर्थ कुडछी भी होता है परन्तु यहाँ पर "दर्वी" का अर्थ है फण और 'कर' का अर्थ है करने वाली। ऐसे सर्प होते हैं जो फण फैलाते हैं उन्हें "दर्वीकर" कहते हैं । दर्वीकर अनेक प्रकार के कहे गये हैं । वे इस प्रकार हैं आशीविष (दाढों में विष वाले) दृष्टिविष (दृष्टि में विष वाले) उग्रविष (तीव्र विष वाले) भोगविष (फण या शरीर में विष वाले) त्वचाविष ( चमडी में विष वाले) लालाविष (लार में विष वाले) उच्छ्वासविष (श्वास लेने में विष वाले) निःश्वास विष (श्वास छोड़ने में विष वाले) कृष्ण सर्प, श्वेतसर्प, काकोदर, दर्भपुष्प, कोलाह, मेलिमिन्द और शेषेन्द्र । इसी प्रकार के अन्य जितने भी सर्प हैं उन्हें दर्वीकर समझना चाहिये । इस प्रकार दवकर कहे गये हैं । प्रश्न- मुकुली किसे कहते हैं ? उत्तर - मुकुली अर्थात् फण उठाने की शक्ति से विकल, जो सर्प बिना फण वाले हैं वे मुकुली कहलाते हैं । - - - ९९ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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