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+ णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीररस के
श्रीमदार्यश्यामाचार्य विरचित
प्रज्ञापना सत्र
(मूल पाठ, शब्दार्थ, भावार्थ और विवेचन सहित)
प्रस्तावना __ अनादि काल से कालचक्र चलता आ रहा है। उसका एक चक्र का समय बीस कोड़ाकोड़ी सांगरोपम का होता है। उसके दो विभाग होते हैं-उत्सर्पिणीकाल और अवसर्पिणीकाल।
उत्सर्पिणी काल दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है और इसी तरह अवसर्पिणी काल भी दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। प्रत्येक उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल में तरेसट-तरेसट (६३-६३) श्लाघ्य (शलाका) पुरुष होते हैं। यथा - चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव, नौ प्रतिवासुदेव।
तीर्थङ्कर राजपाट आदि ऋद्धि सम्पदा को छोड़ कर दीक्षित होते हैं। दीक्षा लेकर तप संयम के द्वारा घाती कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। केवलज्ञान प्राप्ति के बाद साधु-साध्वी, श्रावकश्राविका रूप चतुर्विध श्रमण संघ की स्थापना करते हैं। जिस तीर्थंकर के जितने गणधर होने होते हैं, उतने गणधर प्रथम देशना में हो जाते हैं। फिर तीर्थंकर भगवान् अर्थ रूप से द्वादशाङ्ग की प्ररूपणा करते हैं और गणधर उस अर्थ को सूत्र रूप में गून्थन करते हैं - यथा - अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा णिउणं।
सासणस्स हियट्ठयाए, तेण तित्थं पवत्तइ॥ अर्थ - तीर्थंकर भगवान् अर्थ फरमाते हैं और गणधर भगवान् शासन के हित के लिए सूत्र रूप से उसे गून्थन करते हैं। जिससे तीर्थङ्कर का शासन चलता रहता है।
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