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________________ २ ********************* * * * * * * * * * * प्रज्ञापना सूत्र *********************************************** जिस प्रकार पञ्चास्तिकाय (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय) भूतकाल में थी, वर्तमान काल में है और भविष्यत् काल में भी रहेगी। इसी तरह यह द्वादशाङ्ग वाणी भूतकाल में थी वर्तमान में है और भविष्यत् काल में भी रहेगी। अतएव यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। द्वादशाङ्ग का अर्थ है बारह अङ्ग सूत्र । उनके नाम इस प्रकार है - आचाराङ्ग, सूयगडाङ्ग, ठाणाङ्ग, समवायाङ्ग, भगवती (व्याख्या प्रज्ञप्ति), ज्ञाता धर्म कथा, उपासकदशाङ्ग, अन्तगड़दशाङ्ग अनुत्तरोववाई, प्रश्नव्याकरण, विपाक सूत्र, दृष्टिवाद । इन बारह अङ्गों में दृष्टिवाद बहुत विशाल है अथवा यों कहना चाहिए कि दृष्टिवाद ज्ञान का खजाना है अथाह और अपार सागर है। उसके पांच भेद किये गये हैं यथा - परिकर्म, सूत्र, पूर्व, अनुयोग, चूला। इनमें पूर्वों के चौदह भेद किये गये हैं । पूर्व शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गयी है कि तीर्थङ्कर भगवान् सबसे पहले पूर्वों का कथन करते हैं । इसीलिये इनको पूर्व ( सबसे पहले) शब्द से कहा जा है। चौदह पूर्वों का ज्ञान बहुत विशाल है। परन्तु शिष्यों को अध्ययन कराने की अपेक्षा से आचाराङ्ग का पहला क्रम दिया गया है। इस पांचवे आरे में न पूर्वों का ज्ञान विद्यमान है और न ही दृष्टिवाद का ज्ञान है । अर्थात् सम्पूर्ण दृष्टिवाद का विच्छेद हो चुका है। अब तो ग्यारह अङ्ग सूत्र ही उपलब्ध होते हैं। इन ग्यारह अङ्गों में व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का महत्त्व बहुत है । यह विशाल भी है । द्रव्यानुयोग के ज्ञान का भण्डार है इसीलिए व्याख्याप्रज्ञप्ति की महत्ता बताने के लिए इसके लिए " भगवती" विशेषण लगाया है। जिसका अर्थ है सम्पूर्ण ऐश्वर्य से सम्पन्न। यह शब्द इतना प्रचलित हुआ कि व्याख्याप्रज्ञप्ति यह नाम गौण होकर व्यवहार में "भगवती" नाम ही प्रचलित हो गया। Jain Education International अङ्गों की तरह उपाङ्गों की संख्या भी बारह है । उनके नाम इस प्रकार है- उववाई, रायपसेणी, जीवाजीवाभिगम, पणवणा, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, निरयावलिया, कप्पवडंसिया, पुष्फिया, पुप्फचूलिया और वहिदसा सूत्र । जिस प्रकार ग्यारह अङ्गों में भगवती सूत्र का महत्त्वपूर्ण प्रथम स्थान है, इसी प्रकार बारह उपाङ्गों में " पण्णवणा" सूत्र का भी महत्त्वपूर्ण प्रथम स्थान है क्योंकि भगवती सूत्र की तरह इसमें भी द्रव्यानुयोग का वर्णन है। यहाँ पर सहज ही यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि क्या भगवती सूत्र की तरह पण्णवणा सूत्र भी तीर्थंकर भगवान् की पाणी है ? इसका समाधान यह है कि किसी अपेक्षा पण्णवणा सूत्र भी तीर्थङ्कर भगवन्तों की ही वाणी है क्योंकि इसकी आगे तीसरी गाथा में शब्द दिया है - "दिट्ठिवायणीसन्दं" For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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