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प्रथम प्रज्ञापना पद - देव जीव प्रज्ञापना
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प्रश्न - कल्पातीत देव कितने प्रकार के कहे गये हैं। उत्तर - कल्पातीत देव दो प्रकार के कहे गये हैं - १. ग्रैवेयक और २. अनुत्तरौपपातिक।
से किं तं गेविजगा? गेविजगा णवविहा पण्णत्ता। तंजहा - हेट्टिम हेट्टिम गेविजगा, हेट्ठिम मज्झिम गेविज्जगा, हेट्टिम उवरिम गेविज्जगा, मज्झिम हेट्ठिम गेविजगा, मझिम मझिम गेविजगा, मज्झिम उवरिम गेविजगा, उवरिम हेट्ठिम गेविजगा, उवरिम मनिझम गेविजगा, उवरिम उवरिम गेविजगा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पजत्तगा य अपजत्तगा य। से तं गेविजगा। से किं तं अणुत्तरोववाइया? अणुत्तरोववाइया पंचविहा पण्णत्ता। तंजहा - विजया, वेजयंता, जयंता, अपराजिया, सव्वट्ठसिद्धा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता। तंजहा - पजत्तगा य अपजत्तगा य। से तं अणुत्तरोववाइया। से तं कप्पाईया।से तं वेमाणिया।से तं देवा। से तं पंचिंदिया।से तं संसारसमावण्णजीवपण्णवणा। सेतं जीवपण्णवणा। सेतं पण्णवणा॥७८॥
प्रश्न - ग्रैवेयक देव कितने प्रकार के कहे गये हैं ?
उत्तर - ग्रैवेयक देव नौ प्रकार के कहे गये हैं - १. अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक २. अधस्तन मध्यम ग्रैवेयक ३. अधस्तन उपरिम ग्रैवेयक ४. मध्यम अधस्तन ग्रैवेयक ५. मध्यम मध्यम ग्रैवेयक ६. मध्यम उपरिम ग्रैवेयक ७. उपरिम अधस्तन ग्रैवेयक ८. उपरिम मध्यम ग्रैवेयक और ९. उपरिम उपरिम ग्रैवेयक। वे संक्षेप में दो प्रकार के कहे हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। इस प्रकार ग्रैवेयक देव कहे गये हैं। .. प्रश्न - अनुत्तरौपपातिक देव कितने प्रकार कहे गये हैं ?
___उत्तर - अनुत्तरौपपातिक देव पांच प्रकार के कहे गये हैं - १. विजय २. वैजयंत ३. जयंत ४. अपराजित और ५. सर्वार्थसिद्ध। वे संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। इस प्रकार अनुत्तरौपपातिक देव कहे गये हैं। इस प्रकार कल्पातीत देव कहे गये हैं। इस प्रकार वैमानिक देव और पंचेन्द्रिय कहे गये हैं। यह संसार समापत्रक जीव प्रज्ञापना है। इस प्रकार जीव प्रज्ञापना कही गयी है। यह प्रथम प्रज्ञापना पद का निरूपण हुआ।
विवेचन - प्रश्न - देव किसे कहते हैं? - उत्तर - देवगति नाम कर्म के उदय वालों को देव कहते हैं।
देव शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है - संस्कृत में "दिवु-क्रीडा विजिगीषा व्यवहार धुति स्तुति मोद मद स्वण कान्ति गतिषु।" इस प्रकार दिवु धातु के दस अर्थ हैं। "दीव्यन्ति निरुपम् क्रीडा सुखम् अनुभवन्ति इति देवाः॥" अथवा "यथेच्छं प्रमोदन्ते इति देवाः।" अर्थात् - निरुपम क्रीडा सुख का जो अनुभव करते हैं अथवा सदा प्रसन्नचित रहते हैं उन्हें देव कहते हैं।
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