________________
१४८
प्रज्ञापना सूत्र
*****************
**
******************
******************
******************
देव के चार भेद हैं - १. भवनवासी २. वाणव्यंतर ३. ज्योतिषी और ४. वैमानिक। प्रश्न - भवनवासी देव किसे कहते हैं?
उत्तर - जो देव प्रायः भवनों में रहते हैं उन्हें भवनपति या भवनवासी देव कहते हैं। टीकाकार ने भवनवासी शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है - "भवनेषु वसन्ति इत्येवंशीला भवनवासिनः, एतद् बाहुल्यतो नागकुमार आदि अपेक्षया द्रष्टव्यं, ते हि प्रायो भवनेषु वसन्ति कदाचित् आवासेषु, असुरकुमारास्तु प्राचुर्येण आवासेषु कदाचिद् भवनेषु। अथ भवनानाम् आवासानां च कः प्रतिविशेष? उच्यते, भवनानि बहिर्वृतानि अन्तः समचतुरस्त्राणि अध: पुष्करकर्णिकासंस्थानानि, आवासाः कायमानस्थानीया महामण्डपा विविध मणि रत्न प्रदीप प्रभासित सकल दिक चक्रवाला इति।"
अर्थात् - जो भवनों में रहते हैं उन्हें भवनवासी कहते हैं यह व्याख्या प्राय: नागकुमार जाति के भवनवासी देवों में घटित होती है क्योंकि वे प्रायः भवनों में रहते हैं। कभी-कभी आवासों में भी रहते हैं। असुरकुमार तो प्रायः आवासों में ही रहते हैं। कभी कभी भवनों में भी रहते हैं।
प्रश्न - भवन और आवास किसे कहते हैं ? इन दोनों में क्या (विशेषता) अन्तर है?
उत्तर - जो बाहर से गोल और अंदर समचौरस तथा नीचे पुष्करकर्णिका (कमल की कर्णिका) के आकार वाले होते हैं उनको भवन कहते हैं। जो अपने शरीर परिमाण ऊँचे सब दिशाओं में अर्थात् चारों तरफ अनेक प्रकार के मणि, रत्ल और दीपकों की प्रभा से प्रकाशित महामण्डप होते हैं उन्हें आवास कहते हैं।
प्रश्न - भवनपति देवों के दस भेदों को 'कुमार' शब्द से विशेषित क्यों किया है?
उत्तर - जिस प्रकार कुमार (बालक) क्रीड़ा, खेलकूद आदि को पसन्द करते हैं, उसी प्रकार ये भवनपति देव भी क्रीड़ा में रत रहते हैं तथा सदा जवान की तरह जवान (युवा) बने रहते हैं। इसलिए इनको कुमार कहते हैं। दस भवनवासी देवों के नाम भावार्थ में दे दिये हैं।
प्रश्न - वाणव्यंतर - किसे कहते हैं ? उत्तर - वाणव्यंतर शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है -
"अन्तरं अवकाशः तच्चेहाश्रयरूप द्रष्टव्यं, विविधं भवन, नगर आवास रूपमन्तरं येषां ते व्यन्तराः (तत्र भवनानि रत्नप्रभायाः प्रथमे रलकाण्डे उपर्यधश्च प्रत्येकं योजनशतमपहाय शेषे अष्टयोजनशतप्रमाणे मध्यभागे भवन्ति, नगराण्यपि तिर्यग लोके तत्र तिर्यग् लोके यथा जम्बूद्वीप द्वाराधिपतेः विजयदेवस्य अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वादशयोजन सहस्रप्रमाण नगरी। आवासाः त्रिष्वपि लोकेषु, तत्र ऊर्ध्वलोके पाण्डकवनादौ इति)" अथवा
विगतमन्तरं मनुष्येम्यो येषां ते व्यन्तराः तयाहि मनुष्यान् अपि चक्रवर्ती वासुदेव प्रभृतीन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org