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________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - महादंडक द्वार ३९७ होते हैं। (४५) इनकी अपेक्षा पर्याप्तक चतुरिन्द्रिय संख्यात गुणा हैं, क्योंकि वे अंगुल के संख्यातवें भागमात्र सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने हैं। (४६ से ४८) उनकी अपेक्षा पंचेन्द्रियपर्याप्तक, द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक हैं। _(४९-५२) पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्तक, त्रीन्द्रिय-अपर्याप्तक और द्वीन्द्रियअपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये सब अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने प्रमाण में होते हैं, किन्तु अंगुल के असंख्यात भाग के असंख्यात भेद होते हैं। अतः अपर्याप्तक-द्वीन्द्रिय पर्यन्त उत्तरोत्तर अंगुल का असंख्यातवां भाग कम अंगुल का असंख्यातवां भाग लेने पर कोई दोष नहीं। (५३ से ५६ तक) प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक, बादर निगोद-पर्याप्तक, बादर पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक, बादर अप्कायिक-पर्याप्तक, उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यातगुणा हैं क्योंकि घनीकृत लोक के एक प्रतर के छोटे-छोटे (क्रमशः आगे आगे असंख्यातगुणा हीन) अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप प्रतर खण्डों के तुल्य होते हैं। (५७) उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणा हैं क्योंकि घनीकृत लोक के असंख्यातवें भागवर्ती असंख्य प्रतरों के प्रदेश तुल्य होते हैं। ___(५८ से ७३ तक) बादर तेजस्कायिक-अपर्याप्तक, प्रत्येकशरीर-बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक, बादर निगोद-अपर्याप्तक, बादर पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक, बादर अप्कायिक-अपर्याप्तक, बादर वायुकायिक-अपर्याप्तक और सूक्ष्म तेजस्कायिक-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यात गुणा हैं, उनकी अपेक्षा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक-अपर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिकअपर्याप्तकं उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक-पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं उनकी अपेक्षा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक-पर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक-पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक हैं। उनकी अपेक्षा सूक्ष्म निगोद-अपर्याप्तक असंख्यात गुणा हैं तथा उनसे सूक्ष्म निगोदपर्याप्तक संख्यात गुणा अधिक हैं। ५८ से ७३ तक सभी बोल असंख्यात लोक के आकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं। क्रमशः आगे आगे के बोलों में असंख्यातगुणा आदि लोक समझना। ५३ से ७३ वें बोल तक की प्रत्येक राशि आठवें असंख्याता जितनी होती है। यद्यपि अपर्याप्तक तेजस्कायिक से लेकर पर्याप्तक सूक्ष्म निगोद पर्यन्त जीव सामान्यरूप से असंख्यात लोकाकाशों की प्रदेशराशि प्रमाण (तुल्य) अन्यत्र कहे गए हैं, तथापि लोक का असंख्येयत्व भी असंख्यात भेदों से युक्त होने के कारण यह अल्पबहुत्व संगत ही है। (७४) उनकी अपेक्षा अभव्य अनन्त गुणा हैं, क्योंकि वे जघन्य युक्त-अनन्तक प्रमाण हैं। (७५) उनसे प्रतिपतित सम्यग्दृष्टि अनन्त गुणा हैं ये जीव मध्यम युक्त अनंत (पांचवें अनंत) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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