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________________ २४२ प्रज्ञापना सूत्र भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक लान्तक देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! लान्तक देव कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! ब्रह्मलोक कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में बहुत योजन यावत् बहुत कोटाकोटि योजन ऊपर जाने पर लान्तक नामक कल्प (देवलोक) कहा गया है जो पूर्व पश्चिम में लम्बा इत्यादि ब्रह्मलोक की तरह जानना किन्तु विशेषता यह है कि यहाँ पचास हजार विमान हैं, ऐसा कहा गया है। अवतंसक ईशान कल्प के अवतंसकों के समान कह देना चाहिये किन्तु यहाँ मध्य भाग में लान्तकावतंसक है। यहाँ लान्तक यावत् विचरण करते हैं। यहाँ लान्तक नामक देवों का इन्द्र देवों का राजा निवास करता है इत्यादि सारा वर्णन सनत्कुमार की तरह जानना किन्तु पचास हजार विमानों का, पचास हजार सामानिक देवों का, पचास हजार से चार गुणा (दो लाख) आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहुत से देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। कहि णं भंते! महासुक्काणं देवाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते! महासुक्का देवा परिवसंति?, गोयमा! लंतगस्स कप्पस्स उप्पिं सपक्खिं सपडिदिसिं जाव उप्पइत्ता एत्थ णं महासुक्के णामं कप्पे पण्णत्ते, पाईण पडीणायए, उदीण दाहिण वित्थिपणे, जहा बंभलोए। णवरं चत्तालीसं विमाणावास सहस्सा भवंतीति मक्खायं। वडिंसगा जहा सोहम्मवडिंसए जाव विहरंति। महासुक्के इत्थ देविंदे देवराया जहा सणंकुमारे। णवरं चत्तालीसाए विमाणावाससहस्साणं, चत्तालीसाए सामाणियसाहस्सीणं, चउण्ह य चत्तालीसाणं आयरक्खदेव साहस्सीणं जाव विहरइ॥१२८॥ ___ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक महाशुक्र देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं? हे भगवन! महाशक्र देव कहाँ रहते हैं? उत्तर - हे गौतम! लांतक कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में यावत् ऊपर जाने पर महाशुक्र नामक कल्प (देवलोक) कहा गया है। जो पूर्व पश्चिम में लम्बा और उत्तर दक्षिण में चौड़ा है इत्यादि ब्रह्मलोक कल्प की तरह कह देना चाहिये। विशेषता यह है कि इसमें चालीस हजार विमान हैं। ऐसा कहा गया है। अवतंसक, सौधर्मावतंसक के समान कह देना चाहिये किन्तु इनके मध्य में महाशुक्रावतंसक है शेष सारा वर्णन यावत् विचरण करते हैं तक समझना चाहिये। यहाँ महाशुक्र नामक देवेन्द्र देवराज निवास करता है शेष सारा वर्णन सनत्कुमारेन्द्र के समान जानना चाहिये विशेषता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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