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________________ १२ प्रज्ञापना सूत्र 谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢谢懒谢谢帝彩密宗彩**我知 ******常常常來常常懒索谢谢常常案宗常案**来来来来来来来樂術樂常常楽楽楽楽沿******* समाधान भगवान् तो भव्य अभव्य के भेद बिना सभी को समान रूप से उपदेश प्रदान करते हैं। परन्तु स्वभाव से ही जैसे सूर्य का प्रकाश उल्लू के लिए उपकारक नहीं होता। उसी प्रकार भगवान् का उपदेश अभव्यों के लिए उपकारक नहीं होता है। भव्यों के लिए ही उपकारी होता । इसलिए 'भव्यजननिवृत्तिकर' ऐसा विशेषण भगवान् के लिए दिया गया है। उवदंसिया- 'उपदर्शिता' - उप-समीप से श्रोताओं को जल्दी से यथावस्थित तत्त्व का बोध हो तदनुसार स्पष्ट वचनों से दर्शिता - उपदेश किया है। पण्णवणा- प्रज्ञापना- प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते जीवाजीवादयो भावा अनया शब्दसंहत्या इति प्रज्ञापना जिस शब्द समूह से जीव अजीव आदि भाव की प्ररूपणा की जाती है वह प्रज्ञापना है | यह प्रज्ञापना श्रुत रत्नों की निधान है । रत्न दो प्रकार के हैं रत्न तात्त्विक नहीं होने से यहाँ भाव रत्नों का अधिकार है। १. द्रव्य रत्न और २. भाव रत्न । द्रव्य किसकी प्रज्ञापना है ? इसके उत्तर में बताया है- सर्व भावों की प्रज्ञापना है। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सर्व भाव-तत्त्व हैं। प्रज्ञापना के ३६ पदों में पहले प्रज्ञापना पद में, तीसरे बहुवक्तव्यता पद में, पांचवें विशेष पद में, दसवें चरम पद में और तेरहवें परिणाम पद में जीव और अजीव की प्रज्ञापना है । सोलहवें प्रयोगपद में और २२ वें क्रिया पद में आस्रव की, २३ वें कर्म प्रकृति पद में बंध की, ३६ वें समुद्घात पद में केवली समुद्घात की प्ररूपणा प्रसंग से संवर, निर्जरा और मोक्ष की तथा शेष स्थान आदि पद में कोई कोई भाव की प्रज्ञापना की गयी है अथवा द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव रूप सर्व भावों की प्रज्ञापना है। क्योंकि इसके अलावा अन्य कोई भी वस्तु प्रज्ञापनीय (प्ररूपणा करने योग्य) नहीं है। उसमें पहले प्रज्ञापना पद में जीव और अजीव द्रव्य की, दूसरे स्थान पद में जीव के आधार भूत क्षेत्र की, चौथे स्थिति पद में नैरयिकादि की स्थिति का निरूपण किया हुआ होने से काल की और बाकी के पदों में संख्या, ज्ञानादि पर्याय व्युत्क्रान्ति र उच्छ्वास आदि भावों की प्रज्ञापना की गयी है। - - Jain Education International (वायगवरवंसाओ, तेवीसइमेण धीर पुरिसेणं । दुद्धरधरेण मुणिणा, पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीण ॥ ३ ॥ सुयसागरा विणेऊण, जेण सुयरयणमुत्तमं दिण्णं । सीसगणस्स भगवओ, तस्स णमो अज्जसामस्स ॥ ४ ॥ ) कठिन शब्दार्थ - वायगवरवंसाओ श्रेष्ठ वाचक वंश में, दुद्धरधरेण दुर्धर महाव्रतों को धारण - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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