SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम प्रज्ञापना पद - प्रस्तावना ११ ** ** ******************************************* *** ********** *** **** शंका - ऋषभदेव आदि अन्य तीर्थंकरों को वंदना नहीं करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को ही वन्दन क्यों किया गया है ? - समाधान - भगवान् महावीर स्वामी वर्तमान धर्म तीर्थ के अधिपति (तीर्थाधिपति) होने से आसन्न (निकट) उपकारी है। अतः ऋषभदेव आदि अन्य तीर्थंकरों को वंदन नहीं करके प्रभु महावीर स्वामी को वंदन किया गया है। सुयरयणणिहाणं जिणवरेणं भवियजणणिव्वइकरेणं। उवदंसिया भगवया पण्णवणा सव्व भावाणं ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - सुयरयणणिहाणं - श्रुतरत्न निधान, भवियजणं णिव्वुइकरेणं - भव्य जननिवृत्तिकर-भव्य जीवों के लिये निर्वाण (मोक्ष) का कारण, उवदंसिया - उपदिष्ट की है, पण्णवयाप्रज्ञापना, सव्वभावाणं - सर्व भावों की। भावार्थ - भव्यजनों के लिए मोक्ष या उसके कारण रूप रत्नत्रयी का उपदेश देने वाले सामान्य केवलियों में श्रेष्ठ ऐसे भगवान् महावीर स्वामी ने श्रुतरत्नों के निधान भूत ऐसी सर्व भावों वाली प्रज्ञापना बतायी है। विवेचन - छद्मस्थ और क्षीण मोह जिन की अपेक्षा सामान्य केवली भी जिनवर कहलाते हैं। अतः तीर्थंकरत्व का बोध कराने के लिए भगवया (भगवता) विशेषण दिया है। भग' शब्द का अर्थ बतलाते हुए कहा है कि ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयलस्य, षण्णां भग इतीङ्गना॥ - समग्र ऐश्वर्य, रूप, यश, संयम, लक्ष्मी, धर्म और धर्म में पुरुषार्थ यह छह भंग की संज्ञा है। इन छह बातों का स्वामी भगवान् कहलाता है। तीन लोक के अधिपति होने से अन्य प्राणियों की अपेक्षा तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी समग्र ऐश्वर्यादि सम्पन्न हैं। ____भवियजणणिव्युइकरेणं - भव्य जन निवृत्तिकर - तथाविध अनादि पारिणामिक भाव के कारण जो सिद्धि गमन योग्य हो वह 'भव्य' कहलाता है। ऐसे भव्यजनों को जो निर्वृत्ति-निर्वाण, शांति या निर्वाण के कारण भूत सम्यग्-दर्शन आदि प्रदान करने वाले। शंका - भगवान् भव्य जीवों को ही सम्यग्-दर्शन आदि देते हैं। अभव्य जीवों के लिए क्यों नहीं? क्या यह भगवान् का पक्षपात नहीं है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy