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प्रथम प्रज्ञापना पद - वनस्पतिकायिक जीव प्रज्ञापना
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अनन्त निगोदिया जीवों का शरीर एक ही होता है। यह कथन औदारिक शरीर की अपेक्षा से जानना चाहिए। उन सब जीवों के तैजस और कार्मण शरीर तो भिन्न-भिन्न होते हैं।
जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता तंजहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। तत्थ णं जे ते अपजत्तगा ते णं असंपत्ता। तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा तेसि णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखिज्जाइं जोणिप्पमुहसयसहस्साइं। पजत्तग-णिस्साए अपजत्तगा वक्कमंति। जत्थ एगो तत्थ सिय संखिज्जा, सिय असंखिज्जा, सिय अणंता। एएसि णं इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ तंजहा
कंदा य कंदमूला य रुक्खमूला इ यावरे। गुच्छा य गुम्मा वल्ली य वेणुयाणि तणाणि य॥१॥ पउमुप्पल संघाडे हढे य सेवाल किण्हए पणए। अवए य कच्छ भाणी कंडुक्केगूणवीसइमे॥२॥ तयछल्ली पवालेसु पत्तपुप्फफलेसु य। मूलग्गमज्झबीएसु जोणी कस्सइ कित्तिया॥॥
से तं साहारण सरीर बायर वणस्सइ काइया। से तं बायर वणस्सइ काया। से तं वणस्सइकाइया।से तं एगिंदिया॥४३-३॥
कठिन शब्दार्थ - अणुगंतव्वाओ - अनुसरण करना चाहिये।
भावार्थ - इसी प्रकार की अन्य जो वनस्पतियाँ हों उन्हें लक्षणानुसार साधारण या प्रत्येक वनस्पतिकाय समझ लेनी चाहिये। वे जीव संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। उनमें जो अपर्याप्त हैं वे असम्प्राप्त (अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं किये हुए) हैं। उनमें से जो पर्याप्त हैं उनके वर्णादेश, गंधादेश, रसादेश और स्पर्शादेश से हजारों भेद हो जाते हैं। उनके संख्यात लाख योनि प्रमुख होते हैं। पर्याप्त के आश्रय से अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्त जीव होता है वहाँ कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनंत अपर्याप्त होते हैं। वनस्पति के विषय में विशेष जानने के लिये इन गाथाओं का अनुसरण करना चाहिये। वे इस प्रकार हैं -
१. कन्द (सूरण आदि कन्द) २. कन्दमूल ३. वृक्षमूल ४. गुच्छ ५. गुल्म ६. वल्ली और ७. वेणु (बांस) और ८ तृण ९. पद्म १०. उत्पल ११. श्रृंगाटक (सिंघाडा) १२. हढ १३. शैवाल १४. कृष्णक १५. पनक १६. अवक १७. कच्छ १८. भाणी और १९. कंदुक (कन्दक्य)।
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