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________________ २२२ ******** ************************ प्रज्ञापना सूत्र ************************************************ इनके दो दो इन्द्र इस प्रकार हैं - १. सन्निहित और सामान्य २. धाता और विधाता ३. ऋषि और ऋषिपात ४. ईश्वर और महेश्वर ५. सुवत्स और विशाल ६. हास और हासरति ७. श्वेत और महाश्वेत ८. पतंग और पतंगपति । ये क्रमशः जानने चाहिये । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वाणव्यंतर देवों के स्थानों, दक्षिण और उत्तरदिशा के देवों के इन्द्रों के स्वरूप एवं वैभव प्रभाव आदि का वर्णन किया गया है। 'वाणमंतर' शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है - - Jain Education International "वनानाम् अन्तराणि वनान्तराणि तेषु भवा वानमन्तराः । " अर्थ - वनों के बीच-बीच में जिनके भवन हैं उन्हें वाणव्यन्तर कहते हैं। इनका दूसरा नाम 'व्यन्तर' भी है। जिसका अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है - " विगतं अन्तरं मनुष्येभ्यो येषां ते व्यन्तराः, तथाहि मनुष्यान् अपि चक्रवर्तिवासुदेव प्रभृतीन्, भृत्यवत् उपचरन्ति, केचित् व्यन्तरा इति मनुष्येभ्यो विगतान्तराः, यदि वा विविधं अन्तरं शैलान्तरं, कन्दरान्तरं, वनान्तरं वा आश्रयरूपं येषां ते व्यन्तराः । " अर्थ - मनुष्यों से जिनका भेद (पृथक्पना) नहीं है, उन्हें व्यन्तर कहते हैं क्योंकि कितने ही व्यन्तर देव महान् पुण्यशाली चक्रवर्ती वासुदेव आदि मनुष्यों की सेवा नौकरों की तरह किया करते हैं अथवा व्यन्तर देवों के भवन, नगर और आवास रूप निवास स्थान विविध प्रकार के होते हैं तथा पहाड़ों और गुफाओं के अन्तरों में तथा वनों के अन्तरों में ये वसते हैं। इसलिये भी इन्हें व्यन्तर देव कहते हैं । व्यन्तर देवों के आवास तीनों लोकों में हैं । सलिलावती विजय की अपेक्षा अधोलोक में, जम्बूद्वीप के द्वाराधिपति विजय देव की राजधानी यहाँ से असंख्यात द्वीप समुद्र उल्लंघन करने के बाद अन्य जम्बू द्वीप आता है। उस जम्बू द्वीप में है । इस अपेक्षा तिच्र्च्छा लोक में तथा मेरु पर्वत के पण्डक वन आदि में व्यन्तर देवों के आवास होने से ऊर्ध्व लोक में भी व्यन्तर देवों के आवास हैं । इस प्रकार व्यन्तर देवों का आवास तीनों लोक में है तथापि मुख्य आवास तो तिरछा लोक में ही है। अणपणिक आदि आठ भेद किसमें समाविष्ट होते हैं, इसका वर्णन तो नहीं मिलता है परन्तु इनके भी स्वतंत्र इन्द्र बताये हैं अतः मूल भेद ज्ञानी गम्य है, किन्तु पिशाच आदि आठ भेदों की अपेक्षा कुछ हीन ऋद्धि वाले तो होते ही हैं तथा अणपण्णिक आदि देवों से जृंभक देव हीन जाति के समझना चाहिये । यद्यपि व्यंतरों के १६ भेदों में दस जृंभकों का अन्तर्भाव हो जाने के कारण यहाँ जृंभकों के अलग स्थान नहीं बताये हैं तथापि ये वेश्रमण लोकपाल के पुत्र स्थानीय होने से भगवती सूत्र में इनके विशिष्ट स्थान (चित्र, विचित्र पर्वत और दो जमक पर्वत आदि) बताये गये हैं। जृंभक के इन्द्र नहीं बताये गये हैं तथापि ये जिस जाति में समाविष्ट होते होंगे उस जाति के इन्द्र उनके अधिपति हो सकते हैं तथा जृंभकों की संख्या भी बहुत कम होती है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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