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________________ ३५० प्रज्ञापना सूत्र *************** ***************************** ***** * * *** ** ** ***************** भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन चरम और अचरम जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े अचरम जीव हैं, उनसे चरम जीव अनन्त गुणा हैं। विवेचन - जिन जीवों के द्वारा संसार का अन्त किया जाना संभव है। वे चरम कहलाते हैं अथवा चरम अर्थात् भव्य जीव जो निश्चित मोक्ष जाने की योग्यता वाले हैं। अचरम (चरम भव के अभाव वाले) अथवा अभव्य जीव अचरम हैं। सिद्ध भी अचरम कहलाते हैं क्योंकि उनका चरम भव (शेष) नहीं है। चरम और अचरम जीवों की अल्पबहुत्व का कथन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि सबसे कम अचरम जीव हैं क्योंकि अभव्य जीव तो जघन्य युक्त अनन्त जितनी निश्चित राशि वाले हैं और सिद्ध जीव अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त परिमाण वाले हैं उनसे चरम शरीरी भव्य जीव अनन्त गुणा हैं क्योंकि वे अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त परिमाण वाले हैं। नोट :- श्री पण्णवणा सूत्र के तीसरे पद में बाईस द्वार का वर्णन है। उसका बासठिया भी हैं। प्रश्न - एक सौ दो बोल कौन से हैं ? उत्तर - जीव के ६ भेद, गति के ८, इन्द्रिय के ७, काया के ८, योग के ५, वेद के ५, कषाय के ६, लेश्या के ८, दृष्टि के ३, सम्यक्त्व के ५, ज्ञान के ७, दर्शन के ४, संयम के ९, उपयोग के २, आहारक के २, भाषक के २, परित्त के ३, पर्याप्तक के ३, सूक्ष्म के ३, संज्ञी के ३, भव्य के ३ और चरम के २ इन सब को मिलाने पर एक सौ चार बोल होते हैं। परन्तु थोकड़ा वाले एक सौ दो बोल ही लेते हैं उनकी क्या विवक्षा है यह तो ज्ञात नहीं होता किन्तु शायद ऐसा हो सकता है कि यहाँ समुच्चय जीव का एक बोल और सम्यक्त्व द्वार में सम्यग्दृष्टि का भेद नहीं बताकर पांच सम्यक्त्व और मिथ्यात्व तथा मिश्र ये ७ भेद करके दृष्टि और सम्यक्त्व द्वार दोनों को एक सम्यक्त्व द्वार ही कर दिया गया है। तब एक सौ दो बोल ठीक बैठ जाते हैं। पण्णवणा सूत्र के तीसरे पद में यद्यपि सत्ताईस बोलों पर विचार किया गया है, परन्तु थोकड़ा वालों ने बाईस बोल ही लिये हैं यह उनकी अपनी विवक्षा है। प्रश्न - इसको बासठिया क्यों कहते हैं ? उत्तर - इस प्रत्येक बोल पर इकसठ बातों का विचार किया गया है वे इकसठ बोल इस प्रकार हैं। जीव के १४ भेद, गुणस्थान १४, योग १५, उपयोग १२ और लेश्या ६। ये सब मिलकर इकसठ ल होते हैं। जिस एक बोल पर ये घटित किये जाते हैं. वह एक बोल लिया जाता है। इस प्रकार बासठ बोल हो जाते हैं। जैसे कि मनुष्य में जीव के तीन भेद, गुणस्थान चौदह, योग पन्द्रह, उपयोग बारह और लेश्या छह। इसी प्रकार सब बोलों पर घटा लेना चाहिए। ॥ बाईसवां चरम द्वार समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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