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________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - जीव द्वार ३५१ २३. तेईसवां जीव द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं पोग्गलाणं अद्धासमयाणं सव्वदव्वाणं सव्वपएसाणं सव्वपजवाणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा, पोग्गला अणंत गुणा, अद्धासमया अणंत गुणा, सव्वदव्वा विसेसाहिया, सव्वपएसा अणंत गुणा, सव्वपज्जवा अणतं गुणा॥ २३ दारं॥१९५॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन जीवों, पुद्गलों, अद्धा-समयों, सर्वद्रव्यों, सर्वप्रदेशों और सर्वपर्यायों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं? उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े जीव हैं, उनसे पुद्गल अनन्त गुणा हैं, उनसे अद्धा समय अनन्त गुणा हैं, उनसे सर्व द्रव्य विशेषाधिक हैं, उनसे सर्व प्रदेश अनन्त गुणा हैं और उनसे सर्व पर्याय अनन्त गुणा हैं। विवेचन - प्रश्न - जीव किसे कहते हैं ? उत्तर-"जीवति अजीवत् जीविष्यती इति उपयोग लक्षणत्वेन त्रिकालमपि जीवनात् जीवः।" . अर्थात् - जीव का लक्षण उपयोग है ( उपयोगो लक्षणं जीवस्य) इस उपयोग लक्षण से जो जीवित रहा था, जीवित है और जीवित रहेगा उसको जीव कहते हैं। जीव चाहे हलकी से हलकी गति में चला जाय और यहाँ तक कि निगोद अवस्था में चला जाय वहाँ भी बहुत हलके रूप में उपयोग पाया ही जाता है। यदि उपयोग गुण न पाया जाय तो जीव का अजीव बन जाता है किन्तु ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होगा भी नहीं कि जीव का अजीव बन जाय। जीव अजर-अमर है और सदाकाल रहने वाला है तथा वह अनादि अनन्त है। प्रस्तुत सूत्र में जीव, पुद्गल, काल (अद्धा समय), सर्व द्रव्य, सर्व प्रदेश और सर्व पर्याय का अल्पबहुत्व कहा गया है - १. सबसे थोड़े जीव हैं २. उनसे पुद्गल अनंत गुणा हैं ३. उनसे अद्धा समय (काल) अनन्त गुणा हैं इसका कारण पूर्व में कहे अनुसार समझना चाहिये। ४. अद्धा समय से सर्व द्रव्य विशेषाधिक हैं क्योंकि पुद्गलों से जो अद्धा समय अनन्त गुणा कहा गया हैं वह प्रत्येक द्रव्य है अतः द्रव्य की प्ररूपणा में वे भी ग्रहण किये जाते हैं। साथ ही अनंत जीव द्रव्य, समस्त पुद्गल द्रव्य, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन सब का भी द्रव्य में समावेश हो जाता है और ये सभी मिल कर भी अद्धा समय के अनंतवें भाग जितने होते हैं इसलिये अद्धा समय से सर्व द्रव्य विशेषाधिक हैं। उनसे सर्व प्रदेश अनंत गुणा हैं क्योंकि आकाश अनन्त हैं, उनसे सर्व पर्यायें अनन्त गुणा हैं क्योंकि एक आकाश प्रदेश में अनन्त अगुरुलघु पर्यायें होती हैं। ॥ तेईसवां जीव द्वार समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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