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प्रज्ञापना सूत्र
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जीव और २. काय परित्त - जिनके अल्प काय-शरीर है यानी एक शरीर है ऐसे प्रत्येक शरीरी जीव काय परित्त कहलाते हैं।
दोनों प्रकार के परित्त जीव सबसे थोड़े हैं क्योंकि वर्तमान सम्यग्दृष्टि जीव और प्रतिपतित जीव तथा प्रत्येक शरीरी जीव अन्य जीवों की अपेक्षा बहुत कम हैं उनसे नोपरित्त-नोअपरित्त जीव अनंत गुणा है क्योंकि परित्त और अपरित्त से रहित सिद्ध जीव अनन्त हैं, उनसे अपरित्त जीव अनन्त गुणा हैं क्योंकि २३ दण्डक (वनस्पति के सिवाय) के अनादि मिथ्यादृष्टि जीव और साधारण वनस्पतिकायिक जीव सिद्ध भगवन्त से अनन्त गुणा हैं।
॥ सोलहवां परित्त द्वार समाप्त॥
१७. सतरहवां पर्याप्त द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं णोपजत्तगाणोअपज्जत्तगाणं च कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा णोपजत्तगाणोअपजत्तगा, अपजत्तगा अणंत गुणा, पज्जत्तगा संखिज गुणा॥१७ दारं॥१८६॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नो-पर्याप्तक नो-अपर्याप्तक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं?
उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव हैं, उनसे अपर्याप्तक अनन्त गुणा हैं और उनसे भी पर्याप्तक जीव संख्यात गुणा हैं।
विवेचन - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक किसको कहते हैं? उत्तर - "पर्याप्त एवं पर्याप्तकः। पर्याप्तिनामकर्मोदयात् निज-निज पर्याप्तियुक्तः।"
अर्थ - पर्याप्ति नाम कर्म के उदय से जिस जीव ने अपने योग्य सब पर्याप्तियों को बांध लिया है उसे पर्याप्तक कहते हैं।
प्रश्न - पर्याप्ति किसको कहते हैं ?
उत्तर - "आहारादि पुद्गलग्रहण परिणमनहेतु आत्मनः शक्तिविशेषः, स च पुद्गलोपचयात् उपजायते। किमुक्तं भवति? उत्पत्ति देशभाग गतेन प्रथमं ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां तथा अन्येषामपि प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तसतत्सम्पर्कतस्तद् रूपतया जातानां यः शक्तिविशेषः आहारादि पुद्गलखलरस रूपता आपादन हेतु यथा उदरान्तर गतानां पुद्गल विशेषाणां आहार पुद्गल खल रस रूपता परिणमन हेतु सा पर्याप्तिः।"
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