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________________ - तीसरा बहुवक्तव्यता पद - सूक्ष्म द्वार ३३९ ************************************************************************************ अर्थ :- आहार आदि पुद्गलों को ग्रहण कर उनके परिणमन का हेतु आत्मा की शक्ति विशेष को पर्याप्ति कहते हैं। वह पुद्गलों के उपचय से होती है इसका आशय यह है कि जीव जब उत्पत्ति स्थान में पहुंचता है तथा सर्व प्रथम जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है तथा दूसरे भी प्रति समय में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों को खल, रस आदि रूप परिणमाने की शक्ति विशेष को पर्याप्ति कहते हैं। प्रश्न - पर्याप्ति के कितने भेद हैं? उत्तर - पर्याप्ति के छह भेद हैं यथा - आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छवास पर्याप्ति (प्राणापाण पर्याप्ति), भाषा पर्याप्ति और मन पर्याप्ति। जिस जीव को जितनी पर्याप्तियाँ बांधना होता है उतनी पर्याप्तियाँ पूरी बांध लेने के बाद वह पर्याप्तक कहलाता है। एकेन्द्रिय जीव के पहले की चार पर्याप्तियाँ होती हैं, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और असन्नी पंचेन्द्रिय के भाषा पर्याप्ति तक पांच पर्याप्तियाँ होती हैं और सन्नी पंचेन्द्रिय के छहों पर्याप्तियाँ होती है। अपने बांधने योग्य पर्याप्तियों से कम बांधे तब तक वह जीव अपर्याप्तक कहलाता है। परित्त द्वार के बाद अब पर्याप्तक द्वार कहते हैं - सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नो अपर्याप्तक जीव हैं क्योंकि पर्याप्ति और अपर्याप्ति से रहित सिद्ध जीव थोड़े हैं, उनसे अपर्याप्तक जीव अनंत गुणा हैं क्योंकि साधारण वनस्पतिकायिक और सक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवों के असंख्याता शरीर (औदारिक) होते हैं। जिन्हें निगोद कहा जाता है उन निगोदों में हर एक निगोद शरीर में सिद्धों से अनन्तगुणे जीव होते हैं। ऐसे सभी निगोदों का एक असंख्यातवाँ भाग अर्थात् असंख्याता निगोद शरीरवर्ती जीव हमेशा विग्रह गति में वर्तते हुए मिलते ही है और वे सभी अपर्याप्तक होते हैं। वे जीव सिद्धों से अनन्तगुणे होते हैं। उनसे पर्याप्तक संख्यात गुणा हैं। यहाँ सबसे अधिक जीव सूक्ष्म हैं और सूक्ष्म जीव में सदैव अपर्याप्तक से पर्याप्तक संख्यात गुणा होते हैं अत: संख्यात गुणा कहा है। ॥ सतरहवां पर्याप्त द्वार समाप्त॥ १८. अठारहवां सूक्ष्म द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं सुहुमाणं बायराणं णोसुहुमणोबायराणं च कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा णोसुहुमणोबायरा, बायरा अणंत गुणा, सुहुमा असंखिज गुणा॥१८ दारं॥१८७॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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