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तीसरा बहुवक्तव्यता पद - परित्त द्वार
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__सबसे थोड़े जीव भाषक हैं क्योंकि बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव भाषकबोलने की शक्ति वाले हैं, उनसे अभाषक-एकेन्द्रिय जीव अनंत गुणा हैं क्योंकि एकेन्द्रिय में वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्त हैं इसलिये भाषकों से अभाषक जीव अनन्त गुणा कहे गये हैं।
॥ पन्द्रहवां भाषक द्वार समाप्त॥
१६. सोलहवां परित्त द्वार एएसि णं भंते! जीवाणं परित्ताणं अपरित्ताणं णोपरित्तणोअपरित्ताणं च कयरे कयरेहिंतो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?
गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा परित्ता, णोपरित्तणोअपरित्ता अणंत गुणा, अपरित्ता अणंत गुणा॥१६ दारं॥१८५॥ ___ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! इन परित्त, अपरित्त और नो परित्त-नो अपरित्त जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
उत्तर - हे गौतम! सबसे थोड़े परित्त जीव हैं, उनसे नोपरित्त-नोअपरित्त जीव अनंत गुणा हैं, उनसे भी अपरित्त जीव अनन्त गुणा हैं।
विवेचन - प्रश्न - परित्त शब्द की व्युत्पत्ति क्या है ?
उत्तर - "परिसमन्तात इत: गतः इति परित्त।" जिसने संसार परिमित कर लिया है उसे परित्त संसारी कहते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में परित्त, अपरित्त और नोपरित्त-नोअपरित्त जीवों की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा गया है। यहाँ परित्त शब्द अल्पार्थक है। परित्त का सामान्य अर्थ है - परिमित या सीमित। परित्त के दो भेद हैं - १. भव परित्त - शुक्लपाक्षिक बनने के बाद जिन्होंने एक बार भी समकित प्राप्त कर ली है वे जीव भव परित्त कहलाते हैं इन्हें संसार परित्त भी कहा जाता है।
प्रश्न - शुक्लपाक्षिक किसको कहते हैं? उत्तर - जेसिमवडो पोग्गल-परियट्टो होइ संसारो।
ते सुक्कपक्खिया खलु, अहिए पुण कण्ह पक्खिया। अर्थ - जिन जीवों का संसार परिभ्रमण अर्धपुद्गल परावर्तन बाकी रह गया है, उनको शुक्लपाक्षिक कहते हैं और जिनका संसार परिभ्रमण अर्धपुद्गल परावर्तन से अधिक है उनको कृष्ण पाक्षिक कहते हैं। अतः यहाँ परित्त शब्द का अर्थ यह है कि वर्तमान सम्यग्दृष्टि जीव और प्रतिपतित
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