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________________ दूसरा स्थान पद - भवनवासी देव स्थान शब्दों से शब्दायमान, सर्व रत्नमय, अति स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल, घिसे हुए, साफ किये हुए, रज रहित, निर्मल, निष्पंक, निरावरण, कान्ति वाले, प्रभा वाले, किरणों से युक्त, उद्योत वाले, मन को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होते हैं। ***************************** Jain Education International १९९ ऐसे भवनावासों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक असुरकुमार देवों के स्थान कहे गए हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वे काले वर्ण वाले, लोहिताक्ष-पद्मरागमणि और बिम्बफल के समान ओठों वाले, श्वेत पुष्पों के समान दांतों वाले, काले केशों वाले, बायें भाग में एक कुंडल के धारक, गीले चंदन से लिप्त शरीर वाले, शिलिन्ध्र पुष्प के समान (किंचित् रक्त) वर्ण वाले, संक्लेश उत्पन्न न करने वाले सूक्ष्म और श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए, प्रथम वय को पार किये हुए और द्वितीय वय को प्राप्त नहीं किये हुए, भद्र प्रशस्त यौवन में वर्तते हुए, तलभंग (भुजा का आभरण विशेष ) त्रुटित (बाजूबंद) और अन्य श्रेष्ठ आभूषणों में रहे हुए निर्मल मणि और रत्नों से सुशोभित भुजाओं वाले, दस मुद्रिकाओं (अंगूठियों) से सुशोभित अग्रहस्त वाले और चूडामणि रूप चिह्न वाले होते हैं। वे सुरूप (सुंदर रूप वाले), महर्द्धिक (महान ऋद्धि वाले), महान् कांति वाले, महान् बलशाली, महायशस्वी, महान् अनुभाग वाले, महान् सुख वाले, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले, कडों और बाजुबंदों से स्तम्भित भुजा वाले, अंगद कुण्डल और दोनों कपोलों को स्पर्श करने वाले कर्णपीठ के धारक, विचित्र हस्ताभरण वाले, विचित्र माला और मस्तक पर मुकुट धारण किये हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और विलेपन के धारक, देदीप्यमान शरीर वाले और लम्बी लटकती हुए वनमाला को धारण करने वाले होते हैं। दिव्य वर्ण, दिव्य गंध, दिव्य स्पर्श, दिव्य संहनन, दिव्य संस्थान, दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य प्रभा, दिव्य छाया, दिव्य अर्चि (ज्योति) दिव्य तेज एवं दिव्य लेश्या से दशो दिशाओं को प्रकाशित करते हुए सुशोभित करते हुए वे भवनवासी देव हाँ अपने अपने लाखों भवनावासों, अपने अपने हजारों सामानिक देवों, अपने अपने त्रायस्त्रिंशक देवों, अपने अपने लोकपालों, अपनी अपनी अग्रमहिषियों, अपनी अपनी परिषदाओं, अपनी अपनी मनीकों (सेनाओं), अपने-अपने अनीकाधिपतियों (सेनाधिपतियों), अपने अपने आत्म रक्षक देवों का था अन्य बहुत से भवनवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, अग्रेसरत्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महानता, आज्ञा से ईश्वरत्व (अपनी आज्ञा का पालन कराने का प्रभुत्व) एवं सेनापतित्व करते हुए और कराते ए तथा पालन करते हुए और दूसरों से पालन कराते हुए नित्य प्रवर्तमान नृत्य, गायन, वादित, तंत्री, ल, ताल त्रुटित और घन मृदंग बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य प्रधान भोगने योग्य भोगों को गते हुए विचरते (रहते हैं । यहाँ चमर और बली ये दो असुरकुमार के इन्द्र और असुरकुमार राजा रहते हैं। वे काले, For Personal & Private Use Only ******************* www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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