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प्रज्ञापना सूत्र
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दिव्वेणं वण्णेणं, दिव्वेणं गंधेणं, दिव्वेणं फासेणं, दिव्वेणं संघयणेणं, दिव्वेणं संठाणेणं, दिव्वाए इड्डीए, दिव्वाए जुईए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाए, दिव्वाए अच्चीए, दिव्वेणं तेएणं, दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा, पभासेमाणा।
तेणं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं, साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं, साणं साणं तायत्तीसाणं, साणं साणं लोगपालाणं, साणं साणं अग्गमहिसीणं, साणं साणं परिसाणं, साणं साणं अणियाणं, साणं साणं अणियाहिवईणं, साणं साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अण्णेसिंच बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणा, पालेमाणा, महया हय-पट्टगीयवाइयतंति-तलताल-तुडिय-घणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति॥१०७॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक और अपर्याप्तक असुरकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन्! असुरकुमार देव कहाँ रहते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अंदर प्रवेश (अवगाहन) कर और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर शेष एक लाख अठहत्तर हजार योजन परिमाण मध्य भाग में असुरकुमार देवों के ६४ लाख भवनावास कहे गये हैं। वे भवन बाहर से गोल और भीतर से समचतुरस्र (चौकोण) तथा नीचे के भाग में कमल की कर्णिका के आकार के हैं। उन भवनों के चारों ओर जिनका अंतर स्पष्ट प्रतीत होता है ऐसी गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ और परिखाएं हैं। वे भवन यथास्थान प्राकारों (परकोटों) अटारियों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से सुशोभित हैं। यंत्रों, शतघ्नियों, मूसलों, मुसुण्ढी नामक शस्त्रों से युक्त अयोध्य-शत्रुओं द्वारा युद्ध न कर सकने योग्य, सदाजय, सदागुप्त (सदैव सुरक्षित), अडतालीस प्रकोष्ठों-कमरों से रचित, अड़तालीस वनमालाओं से सुसज्जित, क्षेममय (उपद्रव रहित) शिव (मंगलमय) किंकर देवों के दण्डों से रक्षित हैं। गोबर आदि से लीपने और चूने आदि से पोतने के कारण सुशोभित उन भवनों पर गोशीर्ष चंदन और सरस रक्त चंदन से लिप्त पांच अंगुलियों से युक्त हाथों से छापे लगे होते हैं। जहाँ चंदन के कलश रखे होते हैं। उनके तोरण और प्रतिद्वार चंदन के घड़ों से सुशोभित होते हैं। वे ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी और विपुल पुष्पमालाओं के गुच्छों से युक्त तथा पंचवर्ण के सरस सुगंधित पुष्पों की शोभा से युक्त होते हैं। काले अगर, श्रेष्ठ चीड़ा लोबान तथा धूप की महकती हुई सुगंध से रमणीय उत्तम सुगंधित होने से गंधवट्टी के समान लगते हैं। वे अप्सरागण के संघों से व्याप्त, दिव्य वादिन्त्रों के
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