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________________ तीसरा बहुवक्तव्यता पद - अस्तिकाय द्वार ३४५ Halak * * * *************************************************** *************** द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों के अनन्त भावी संयोग होते हैं तथा भाव से भी अमुक परमाणु अमुक समय एक गुण काला होता है। इस प्रकार एक परमाणु के अलग-अलग समय में अनंत संयोग होते हैं जैसे एक परमाणु के वैसे ही सभी परमाणुओं के और सभी द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों के भाव से अलग-अलग अनंत भावी संयोग होते हैं। इस प्रकार एक परमाणु के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विशेष के संबंध से अनन्त भावी समय केवलज्ञानियों द्वारा जाने हुए हैं। जैसा एक परमाणु के विषय में है वैसा ही सब परमाणुओं एवं द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों के संबंध में भी समझ लेना चाहिये। यह सब परिणमनशील काल के बिना और परिणामी पदगलास्तिकाय के बिना घटित नहीं हो सकता। कहा है - संयोग पुरस्कारश्च नाम भाविनि ही युज्यते काले। न हि संयोग पुरस्कारो ह्यसतां केषांचिदुपपन्नः॥ - भविष्य में होने वाले संयोग भविष्य काल हो तब ही घटित हो सकते हैं परन्तु किसी के मत से भी (पुद्गल आदि और काल) अविद्यमान हो तो भावी संयोग घटित नहीं हो सकते। जैसे सभी परमाणुओं के और सभी द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों के प्रत्येक के द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव विशेष के संबंध से अनन्त भावी अद्धा समय होते हैं उसी प्रकार अतीत (भूत) समय भी सिद्ध होते हैं। अतः द्रव्य रूप से पुद्गलास्तिकाय से अनन्त गुण अद्धा समय-काल है। इस प्रकार द्रव्य की अपेक्षा अल्पबहुत्व कहा है। एएसि णं भंते! धम्मत्थिकाय-अधम्मत्थिकाय-आगासत्थिकाय-जीवत्थिकायपोग्गलत्थिकाय-अद्धासमयाणं पएसट्ठयाए कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए एए णं दोवि तुल्ला पएसट्ठयाए सव्वत्थोवा, जीवत्थिकाए पएसट्ठयाए अणंत गुणे, पोग्गलत्थिकाए पएसट्टयाए अणंत गुणे, अद्धासमए पएसट्ठयाए अणंत गुणे, आगासत्थिकाए पएसट्ठयाए अणंत गुणे॥१९१॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय और अद्धा समय इन द्रव्यों में प्रदेशार्थ रूप से (प्रदेश की अपेक्षा से) कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उत्तर - हे गौतम! धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों प्रदेशार्थ रूप से तुल्य हैं और सबसे थोड़े हैं, उनसे जीवास्तिकाय प्रदेशार्थ रूप से अनंत गुणा हैं, उनसे पुद्गलास्तिकाय प्रदेश रूप से अनंत गुणा हैं, उनसे अद्धा समय प्रदेशार्थ से अनंत गुणा हैं और उनसे आकाशास्तिकाय प्रदेशार्थ रूप से अनंत गुणा हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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