________________
दूसरा स्थान पदं मनुष्य स्थान
-
प्रायोग्य द्रव्यों का सहयोग पा कर उत्पन्न हो जाते हैं वैसे ही उत्कृष्ट अवगाहना वाले असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय भी पानी, मिट्टी आदि उत्पत्ति के प्रायोग्य योनि को प्राप्त करके उत्पन्न हो सकते हैं।
अकर्म भूमि और अन्तरद्वीपों में स्थलचर और खेचर तो युगलिक तिर्यंच हो सकते हैं बाकी जलचर, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प तिर्यंच होते तो है किन्तु वे युगलिक नहीं होते हैं ।
उत्कृष्ट (एक हजार योजन की ) अवगाहना वाले संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय अढ़ाई द्वीप में नहीं होते किन्तु अढ़ाई द्वीप के बाहर ही होते हैं। इसी तरह उत्कृष्ट अवगाहना वाले असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय (बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय) भी अढ़ाई द्वीप के बाहर ही होते हैं, ऐसी संभावना है।
१८७
મનુષ્ય-સ્થાન
कहि णं भंते! मणुस्साणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! अंतो मणुस्खेत्ते पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु, अड्डाइज्जेसु, दीवसमुद्देसु, पण्णरससु कम्मभूमीसु, तीसाए अकम्मभूमीसु, छप्पण्णाए अंतरदीवेसु, एत्थ णं मणुस्साणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं लोयस्स असंखिज्जइभागे, समुग्धाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोयस्स असंखिज्जइभागे ॥ १०५ ॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक मनुष्यों के स्थान कहां कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! पैंतालीस लाख योजन प्रमाण मनुष्य क्षेत्र के अंदर ढ़ाई द्वीप और दो समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस अकर्मभूमियों में और छप्पन अंतरद्वीपों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक मनुष्यों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पर्याप्तक और अपर्याप्तक मनुष्यों के स्थानों का निरूपण किया गया है। समुद्घात की अपेक्षा मनुष्य सर्वलोक में होते हैं यह कथन केवलिसमुद्घात की अपेक्षा समझना चाहिये ।
Jain Education International
जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड द्वीप और पुष्करवरद्वीप का आधा भाग यह अढ़ाई द्वीप हैं। लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र ये दो समुद्र लिये गये हैं। पुष्करवरद्वीप सोलह लाख योजन का लम्बा चौड़ा है। इसके ठीक बीचोबीच में अर्थात् कालोदधि समुद्र की वेदिका से आठ हजार योजन आगे जाने पर मानुषोत्तर पर्वत है। उस पर्वत की अपेक्षा पुष्करवरद्वीप के दो भाग गये हैं। उसमें प्रथम भाग में मनुष्य हैं। यह पर्वत मनुष्यों की मर्यादा करता है। इसीलिये इन पर्वत का नाम मानुष्योत्तर पर्वत है । यहीं तक मनुष्यों का जन्म और मरण होता है। इसके आगे मनुष्यों का जन्म मरण नहीं होता ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org