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________________ १८६ प्रज्ञापना सूत्र ** *************** ******************************* * ************************** प्रश्न .. घनोदधि वलय किसको कहते हैं ? उत्तर - सातों पृथ्वियों की जितनी मोटाई (जाड़ाई) है उसके चौ तरफ थाली की किनारी की तरह घनोदधि आया हुआ है। उसका आकार वलय (चूड़ी) जैसा होने से उसे (घनोदधि वलय कहते हैं अर्थात् सातों पृथ्वियों के नीचे तो घनोदधि है और चारों तरफ धनोदधि वलय है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक स्थान कहि णं भंते! पंचिंदिय तिरिक्ख जोणियाणं पज्जत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! उड्डलोए तदेक्क देसभाए, अहोलोए तदेक्क देसभाए, तिरियलोए अगडेसु, तलाएसु, णईसु (णदीसु), दहेसु, वावीसु, पुक्खरिणीसु दीहियासु, गुंजालियासु, सरेसु, सरपंतियासु, सरसरपंतियासु, बिलेसु, बिलपंतियासु, उज्झरेसु, णिज्झरेसु, चिल्ललेस, पल्ललेसु, वप्पिणेसु, दीवेसु, समुद्देसु, सव्वेसु चेव जलासएसु, जलट्ठाणेसु, एत्थ णं पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं पजत्तापजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखिज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखिज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखिज्जइभागे॥१०४॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के स्थान कहां कहे गये हैं? उत्तर - हे गौतम! ऊर्ध्वलोक में उसके एक देश भाग में, अधोलोक में उसके एक देश भाग में, तिर्यग्लोक में कुओ में, तालाबों में, नदियों में, वापियों में, द्रहों में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुंजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सर-सर पंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जल स्रोतों में, झरनों में, छोटे गड्ढों में, पोखरों में, क्यारियों में अथवा खेतों में. द्वीपों में, समुद्रों में तथा सभी जलाशयों में एवं जल के स्थानों में पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में और स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। विवेचन - तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के स्थान ऊर्ध्व लोक के एक देश में अर्थात् मेरुपर्वत आदि की बावडियों में मत्स्य आदि होते हैं और अधोलोक के एक देश में अर्थात् अधोलौकिक ग्रामादि में होते हैं। अधोलोक में सलिलावती विजय और वप्रा विजय आदि की अपेक्षा समझना चाहिए। इनके स्वस्थान उपपात और समुद्घात इन तीनों आलापकों में लोक का असंख्यातवाँ भाग कहा गया है। जिस प्रकार जघन्य और मध्यम अवगाहना वाले असन्नी तिर्यंच पंचेन्द्रिय पानी, मिट्टी आदि योनि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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