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दूसरा स्थान पद - सिद्धों के स्थाम
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जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोइ। तहा-छुहा-विमुक्कों, अच्छिज जहा अमियतित्तो॥१८॥
भावार्थ - जैसे कि-कोई पुरुष सभी इच्छित गुणों से युक्त भोजन को करके, भूख-प्यास से रहित होकर, जैसे अमित तृप्त-विषयों की प्राप्ति हो जाने से, उत्सुकेता की निवृत्ति से उत्पन्न प्रसन्नता से युक्त-हो जाता है।
इय सव्वकालतित्ता, अतुलं णिव्वाणमुवगया सिद्धा। सासय मव्वाबाहं, चिटुंति सुही सुहं पत्ता॥१९।।
भावार्थ - वैसे ही सर्वकाल तृप्त, अतुल शान्ति को प्राप्त हुए सिद्ध भगवन्त शाश्वत और अव्याबाध सुख को प्राप्त होकर-सुखी होकर स्थित रहते हैं।
विवेचन - वहाँ पर सम्पूर्ण दुःखों की सर्व प्रकार से निवृत्ति रूप अतुल, अनुपम, अव्याबाध सुख सदा काल होता है। ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म के क्षय होने से सकारात्मक (विधि रूप) गुण क्रमशः केवलज्ञान केवल दर्शन उत्पन्न होता है। शेष छह कर्मों के क्षय होने से निषेधात्मक (उन उन कर्मों के पूर्ण अभाव रूप) गुण उत्पन्न होता है ऐसा अनुयोग द्वार आदि सूत्रों में बताया है अतः यहाँ पर भी वेदनीय कर्म के पूर्ण क्षय हो जाने से 'अव्याबाध सुख' रूप गुण उत्पन्न होता है। अनन्त सुख के रूप में शास्त्रकार नहीं बताना चाहते हैं। अतः सर्वत्र सिद्धों के सुखों के लिए अतुल, अनुपम, अव्याबाध शब्दों से ही बताया है।
सिद्धत्ति य, बुद्धत्ति य, पारगयत्ति य परंपरगयत्ति। उम्मुक्ककम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य॥२१॥
भावार्थ - वे सिद्ध-कृतकृत्य हैं। बुद्ध-केवलज्ञान से सम्पूर्ण विश्व को जानने वाले हैं। पारगतभव-सागर से पार पहुंचे हुए हैं। परम्परागत-क्रम से प्राप्त मुक्ति के उपायों के द्वारा पार पहुँचे हुए हैं। उन्मुक्त कर्म कवच-समस्त कर्म रूपी कवच से मुक्त हैं। अजर- बुढ़ापे से रहित हैं। अमर-मरण से रहित हैं और असंग-सभी क्लेशों से रहित हैं।
णिच्छिण्ण-सव्व-दुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का। अव्वाबाहं सोक्खं, अणुहंति सासयं सिद्धा॥२२॥ ॥१३६॥
भावार्थ - सिद्ध भगवन्त सभी दुःखों से रहित होकर, जन्म, जरा, मरण और बन्धन से मुक्त होकर, अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव करते हुए अपने स्वरूप में स्थित हैं। . विवेचन - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी (सिद्ध शिला) उल्टे छत्र के आकार की है। इससे यह स्पष्ट होता
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