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________________ दूसरा स्थान पद - सिद्धों के स्थान २६७ **** ************** *************************** ************************************* अनन्ततम स्थानवर्तिता की प्राप्ति होती है। असद्भाव स्थापना से उस सुखराशि को हजार मान लिया जाय और संमयराशि को सौ। हजार को सौ से गुणित किया तो लाख हुए। यह गुणन किया गया-सर्व समय संबंधी सुख पर्यायों की उपलब्धि के लिए तथा अनंत राशि को 'दश' से मान लिया जाय। उसका वर्ग हुआ सौ। वर्ग से प्राप्त संख्या सौ के द्वारा लक्ष को अपवर्तित किया तो हजार ही हुए। अतः पूज्यों ने कहा कि -'समीभूत-तुल्यरूप ही है-यह आशय है।' यहाँ जो यह सुखराशि का गुणन और अपवर्तन हुआ है, उसकी हम इस प्रकार संभावना करते हैं कि-यहाँ अनन्त राशि से गुणित होने पर भीअनन्तवर्ग अर्थात् अनन्तानन्त रूप अतीव महास्वरूप से अपवर्तित होने पर, किंचिद् अवशेष रहता है, वह राशि भी अति महान् है। उससे भी सिद्धों की सुखराशि महान् है-ऐसी बुद्धि शिष्य में उत्पन्न करने के लिये अथवा गणितमार्ग से व्युत्पत्ति करने के लिये-यह प्रयास है। अन्य इस गाथा की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि - सिद्ध के सुखों की पर्यायराशि xxx जो सर्वसमयों से सम्बन्धित है, उसे सङ्कलित की-उस सङ्कलित राशि को अनन्तबार वर्गमूल से अपवर्तित की अर्थात् अत्यन्त लघु बनाई। जैसे-सर्वसमय सम्बन्धी सिद्धों की सुखराशि ६५५३६ है। इसे वर्ग से अपवर्तित करने पर २५६ हुई। वह स्ववर्ग से अपवर्तित होने पर १६, सोलह से चार और चार से दोयह अतिलघु राशि प्राप्त हुई। वह भी सम्पूर्ण आकाश प्रदेशों में भी नहीं समा सकती है। सांसारिक जीवों के सुखों की पर्यायों को परस्पर मिलाने पर संख्या में वृद्धि होती है जैसे दो व्यक्तियों की सुखों की पर्यायें एक-एक लाख है उन्हें मिलाने पर दो लाख हुई। किन्तु सिद्धों के सुखों की पर्याय भौतिक नहीं होकर आत्मिक अव्याबाध सुख रूप होती है। सभी सिद्धों की तीनों काल के सुख की पर्यायें मिलाने पर या मात्र एक सिद्ध की वर्तमान काल की सुख की पर्याय दोनों समान ही होती है जैसे शून्य (०) को शून्य से कितनी ही बार गुणा करे या जोड़, बाकी, भाग आदि करे तो भी उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है वैसे ही सिद्धों में भी समझना चाहिये। जह णाम कोइ मिच्छो, णगरगुणे बहुविहे वियाणंतो। ण चएइ परिकहेउं, उवमाए तहिं असंतीए॥१७॥ भावार्थ - जैसे कोई म्लेच्छ-जंगली मनुष्य बहुत तरह के नगर के गुणों को जानते हुए भी, वहाँ-जंगल में-नगर के तुल्य कोई पदार्थ नहीं होने से, नगर के गुणों को कहने में समर्थ नहीं हो सकता है। इय सिद्धाणं सोक्खं, अणोवमं णत्थि तस्स ओवम्म। किंचि विसेसेणेत्तो, सारिक्खमिणं सुणह वोच्छं॥१८॥ भावार्थ - वैसे ही सिद्धों का सुख अनुपम है। यहाँ उसकी बराबरी का कोई पदार्थ नहीं है। फिर भी कुछ विशेष रूप से उसकी उपमा कहता हूँ-सो सुनो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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