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________________ ***** * * ** * * ** * ********* दूसरा स्थान पद -- पृथ्वीकाय स्थान १५५ ............५५ पृथ्वीकायिक अपर्याप्तकों के भी स्थान कहे गये हैं। उपपात की अपेक्षा से सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में तथा स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थानों का निरूपण किया गया है। पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय है। इसके आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति ये चार पर्याप्तियां होती हैं। इन चारों पर्याप्तियों को जो पूर्ण कर लेता है उसे पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक कहते हैं। तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना तो किसी भी जीव की मृत्यु होती ही नहीं है। इसलिये तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके चौथी पर्याप्ति को प्रारम्भ तो कर देता है परन्तु पूर्ण होने से पहले ही जिसकी मृत्यु हो जाती है वह अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक कहलाता है। प्रश्न - बादर अपर्याप्तक पृथ्वीकायिक जीवों का स्व स्थान तो लोक के असंख्यातवें भाग में कहा है परन्तु उपपात एवं समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक में कहने का क्या कारण है ? उत्तर - अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक जीव उपपात अवस्था में विग्रह गति में होते हुए भी अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक के आयुष्य का वेदन विशिष्ट विपाक से करते हैं तथा नैरयिक का एक दण्डक छोड़कर शेष सभी तेवीस ही दण्डकों से आकर जीव पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होते हैं और मर कर भी देवों और नैरयिकों के सिवाय शेष सभी स्थानों में जाते हैं अतः विग्रह गति में रहे हुए भी अपर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक ही कहलाते हैं। ये स्वभाव से ही प्रचुर संख्या में होते हैं इसलिए उपपात और समुद्घात की अपेक्षा सर्वलोक व्यापी होते हैं। इनमें से किन्हीं का उपपात ऋजुगति से होता है और किन्हीं का वक्र गति से। इसका निष्कर्ष यह है कि जब किसी बेइन्द्रिय आदि जीव ने पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने के लिए मारणान्तिक समुद्घात की। इसे बेइन्द्रिय का समुद्घात कहा जाता है। जब वह बेइन्द्रिय का आयुष्य पूर्ण करके पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने के लिए मार्ग में चल रहा है (वाटे बह रहा है) उसे पृथ्वीकाय का उपपात कहते हैं। जब वह पृथ्वीकाय के शरीर में उत्पन्न हो जाता है, तब वह पृथ्वीकाय का स्वस्थान कहलाता है या जब वह बेईन्द्रिय के शरीर में है, समुद्घात आदि नहीं कर रहा है। तब वह बेइन्द्रिय का स्वस्थान कहलाता है। कहिणं भंते! सुहमपुढवीकाइयाणं पजत्तगाणं अपजत्तगाणं च ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सुहमपुढवीकाइया जे पजत्तगा जे य अपजत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो!॥८१॥ . कठिन शब्दार्थ - अविसेसा - अविशेष, अणाणत्ता - अनानात्व (नाना-भेद रहित)। भावार्थ - हे भगवन् ! सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहां है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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