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________________ १५४ ************* प्रज्ञापना सूत्र उत्तर - उपयुक्त प्रश्न यथार्थ है किन्तु प्रश्नोत्तर की शैली से जो बात कही जाती है वह शिष्यों को और जनसाधारण को सरलता से समझ में आ सकती है इसलिये आर्य श्यामाचार्य ने भी इस पद्धति को अपनाया है। इसलिये इसमें प्रश्नोत्तर रूप देना अनुचित नहीं है। दूसरी बात यह है कि यह पण्णवणा सूत्र चौदह पूर्वों में से उद्धृत् किया गया है और चौदह पूर्व भगवान् की वाणी है इसलिए आर्य श्यामाचार्य ने भी उसी शैली का अनुसरण किया है। यही बात टीकाकार ने भी कही है - ********************* "यदिवा प्रायः सर्वत्र गणधर प्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपं सूत्रमतो भगवानार्यश्यामोऽपि इत्थमेव सूत्रं रचयति।" अर्थ - प्रायः सब जगह गणधरों ने प्रश्न किये हैं और तीर्थंङ्कर भगवन्तों ने उत्तर फरमाये हैं। इस प्रकार के सूत्र हैं। इस लिये आर्य श्यामाचार्य ने भी इसी पद्धति को अपनाया है। ऐसा करने में श्यामाचार्य की निरभिमानता और तीर्थंकर भगवान् के प्रति अतिशय भक्ति और विनय प्रतिपती प्रकट होती है। प्रश्न - गणधर चार ज्ञान चौदह पूर्व के धारी और सर्वाक्षर सन्निपाती लब्धि के धारक होते हैं और विवक्षित अर्थ के ज्ञान से युक्त होते हैं। फिर भी वे भगवान् से प्रश्न क्यों पूछते हैं ? उत्तर - यह बात सत्य है । यद्यपि गौतम स्वामी आदि गणधर इन प्रश्नों का उत्तर जानते हैं तथापि दूसरे शिष्यों को बोध कराने के लिए इस प्रकार पूछते हैं। अथवा गौतम स्वामी आदि गणधर भी छद्मस्थ हैं इसलिए उनको भी कहीं अनुपयोग हो सकता है। जैसा कि कहा है. - "न हि नामानाभोगश्छद्मस्थस्येह कस्यचिद् नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥" अर्थ - छद्यस्थ के भी कभी अनुपयोग हो सकता है क्योंकि अभी उसके ज्ञानावरणीय कर्म बाकी है । इसलिये तथा अपने वचन में संशय रहित प्रामाणिकता लाने के लिए भी गणधर तीर्थंकर भगवान् से प्रश्न करते हैं। Jain Education International कहि णं भंते! बायर पुढवीकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बायर पुढवीकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बायर पुढवीकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेजड़ भागे ॥ ८० ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! जहाँ बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं वहीं बादर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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