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बीय ठाणपयं
दूसरा स्थान पद
उत्क्षेप (उत्थानिका) - दूसरे पद का नाम "ठाण" पद है। "ठाण" शब्द की संस्कृत छाया (रूप) स्थान होता है। यहाँ स्थान शब्द से यह अर्थ लिया गया है, कि जीवों के रहने का स्थान। इसलिये इस पद में जीवों का स्वस्थान ही प्रमुख है। फिर भी उपपात क्षेत्र और समुद्घात क्षेत्र में भी जीवों का रहना होता है। इसलिये उनका विवेचन भी "ठाण" पद में कर दिया गया है। स्वस्थान से उपपात क्षेत्र असंख्यात गुणा है और उपपात क्षेत्र से समुद्घात क्षेत्र असंख्यात गुणा है। समुद्घात में असंख्यात समय लगते हैं। इसलिये जीवों की संख्या भी अधिक इक्कट्ठी हो जाती है तथा समुद्घात में आत्मप्रदेशों का प्रसारण (फैलाव) भी अधिक होता है। अतः समुद्घात का क्षेत्र सबसे अधिक होता है। उपपात में अधिक से अधिक तीन समय ही लगते हैं अतः पूर्व-पूर्व के जीव उपपात से स्वस्थान में चले जाने से समुद्घात से थोड़े होते हैं।
इस दूसरे."ठाण" पद में दण्डक के क्रम की विवक्षा नहीं करके एकेन्द्रिय आदि जाति के क्रम से कथन किया गया है। ... अपर्याप्तक जीवों का स्वतन्त्र अस्तित्त्व नहीं है क्योंकि वे पर्याप्तक जीवों की नेत्राय में ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए उनका अलग कथन नहीं किया गया है। इसलिए पर्याप्तक जीवों के जो स्वस्थान हैं वे ही अपर्याप्तक जीवों के भी स्वस्थान हैं ऐसा समझ लेना चाहिए।
पृथ्वीकाय-स्थान कहि णं भंते! बायर पढविकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सट्ठाणेणं अट्ठसु पुढवीसु, तंजहा - रयणप्यभाए, सक्करप्पभाए, वालुयप्पभाए, पंकप्पभाए, धूमप्पभाए, तमप्पभाए, तमतमप्पभाए, ईसिप्पब्भाराए, अहोलोए पायालेसु, भवणेसु, भवणपत्थडेसु, णिरएम, णिरयावलियासु, णिरयपत्थडेसु, उड्डलोए कप्पेसु, विमाणेसु, विमाणावलियासु, विमाणपत्थडेसु, तिरियलोए टंकेसु, कूडेसु, सेलेसु, सिहरीसु, पब्भारेसु, विजएसु, वक्खारेसु, वासेसु, वासहरपव्वएस, वेलासु, वेइयासु, दारेसु, तोरणेस दीवेसु, समुद्देस, एत्थ णं बायर पुढविकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा
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