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________________ ****************************** दूसरा स्थान पद नैरयिक स्थान Jain Education International - - नैरयिक-स्थान कहि णं भंते! णेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते! रइया परिवसंति ? गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु पुढवीसु तंजहा रयणप्पभाए, सक्करप्पभाए, वालुयप्पभाए, पंकप्पभाए, धूमप्पभाए, तमप्पभाए, तमतमप्पभाए, एत्थ णं णेरइयाणं चउरासीइ णिरयावास सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं । ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्प संठाणसंठिया, णिच्चंधयार तमसा, ववगयगह- चंद-सूर-णक्खत्तजोइसियप्पहा, मेद- - वसा-1 - पूयपडल-२ - रुहिर-मंस- चिक्खिल्ललित्ताणु-लेवणतला, असुई( वीसा ) परमदुब्भिगंधा काउअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा णरगा, असुभा णरगेसु, वेयणाओ, एत्थ णं णेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, एत्थ णं बहवे णेरड्या परिवसंति । काला, कालोभासा, गंभीरलोमहरिसा, भीमा, उत्तासणगा, परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता 'समणाउसो ! ? ते णं तत्थ णिच्चं भीया, णिच्वं तत्था, णिच्चं तसिया, णिच्चं उव्विग्गा, णिच्चं परममसुहसंबद्धं णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति ॥ ९६ ॥ कठिन शब्दार्थ - खुरप्प संठाणसंठिया क्षुरप्र संस्थान संस्थित-उस्तुरे के आकार वाले, णिच्चंधार तमसा नित्यान्धकार तमस - गाढ अंधकार से ग्रस्त, ववगय गह-चंद-सूर-णक्खत्त जोइसियप्पहा - ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित, मेद-वसा - पूयपडल- रुहिर मंस चिक्खिल्ल लित्ताणुलेवणतला - मेद, वसा ( चर्बी), मवाद के पटल, रुधिर, मांस के कीचड के लेप से लिप्त तल भाग, असुई - अशुचि (अपवित्र), वीसा - विस्रा - बीभत्स, परमदुब्भिगंधा- अत्यंत दुर्गन्धित, काउ अगणि वण्णाभा कापोताग्निवर्णाभा - कापोत वर्ण की अग्नि जैसे रंग के, कक्खडफ़ासा - कर्कश स्पर्शा-कठोर स्पर्श वाले, दुरहियासा दुरध्यास- दुःसह, कालोभासा - काली आभा वाले, गंभीरलोमहरिसा - गंभीरलोमहर्षा-गंभीर रोमांच वाले, उत्तासणगा उत्तरासनक- उत्कट त्रास जनक, परमकिण्हा - परम कृष्ण, तत्था - त्रस्त, तसिया - त्रासित, उव्विग्गा - उद्विग्न ( खेदित) । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक नैरयिकों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! नैरयिक कहाँ निवास करते हैं ? उत्तर - हे गौतम! स्वस्थान की अपेक्षा सात पृथ्वियों में रहते हैं । वे इस प्रकार हैं- १. रत्नप्रभा - For Personal & Private Use Only ******************** १७३ - - www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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