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________________ दूसरा स्थान पद - तेजस्काय स्थान १५९ AAAAAAAAAAA *** ** *************************** तेजस्काय-स्थान कहिणं भंते! बायर-तेउकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा! सट्ठाणेणं अंतोमणुस्सखेत्ते अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु, णिव्वाघाएणं पण्णरससु कम्मभूमीसु वाघायं पडुच्च पंचसु महाविदेहेसु, एत्थ णं बायर तेउकाइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उबवाएणं लोयस्स असंखेजइ भागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेजइ भागे, सट्ठाणेणं लोबस्स असंखेजइ भागे॥८३॥ कठिन शब्दार्थ - अंतोमणुस्सखेत्ते - मनुष्य क्षेत्र के अंदर, णिव्याघाएणं - निर्व्याघात से। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उत्तर - हे गौतम! स्व स्थान की अपेक्षा से मनुष्य क्षेत्र के अंदर ढाई द्वीप समुद्रों में निर्व्याघात की अपेक्षा पन्द्रह कर्म भूमियों में और व्याघात की अपेक्षा पांच महाविदेहों में पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान कहे गये हैं। वे उपपात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में तथा स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। विवेचन - स्वस्थान की अपेक्षा पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान मनुष्य क्षेत्र के अन्तर्गत ढाई द्वीपों (जंबूद्वीप, धातकीखंड और अर्द्धपुष्करवरद्वीप) और दो समुद्रों (लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र) में हैं। ___ व्याघात अर्थात् प्रतिबंध रूप अति स्निग्ध या अति रूक्ष काल होने पर बादर अग्नि काय का विच्छेद हो जाता है। अतः जब पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्रों में सुषमसुषमा, सुषमा और सुषमदुषमा ये तीन आरे वर्तते (प्रवृत होते) हैं तब अति स्निग्धकाल होता है और जब दुष्षम दुषमा नामक छठा आरा वर्तता है तब अतिरूक्ष काल होता है और उस समय अग्नि का विच्छेद हो जाता है। इसलिए व्याघात-प्रतिबंध हो तब पांच महाविदेहों में और व्याघात नहीं हो तब पंद्रह कर्म भमियों में पर्याप्तक बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान कहे गये हैं। उपपात-उक्त स्थानों की प्राप्ति की अभिमुखता की अपेक्षा यानी अन्तराल गति (विग्रह गति) में हो तब बादर तेजस्कायिक लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। क्योंकि वे बहुत थोड़े होते हैं। समुद्घात की अपेक्षा मारणान्तिक समुद्घात के समय आत्म-प्रदेशों को दण्ड रूप में विस्तार करते हुए भी थोड़े होने से वे लोक के असंख्यातवें भाग में ही समा जाते हैं। स्वस्थान की अपेक्षा से भी वे लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं क्योंकि मनुष्य क्षेत्र की लम्बाई-चौडाई ४५ लाख योजन प्रमाण होने से वह लोक का असंख्यातवां भाग मात्र है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004093
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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